[ डर ]
[ डर ]
मैंने टूटती हुई चीज़ों को
काफ़ी नज़दीक से टूटते हुए देखा है
ज़ख़्म का स्वाद लोगों को चखते हुएअपनी आँखों से देखा है
वे ना फिर किसी से कुछ कह पाते हैं,
ना किसी से आँखें मिला पाते हैं
ज़मीन में अपनी ही क़ब्र खोद,
वे बस मिट्टी में मिल जाते हैं
वे फिर भी ज़िंदा रहते हैं।
अब इस अहसास से अनजान,
मैंने अपने आप से एक प्रश्न पूछा,
कि आख़िर लोग डरते क्यों हैं?
और अगर डरते भी हैं तो ऐसी क्या ख़ूबी है इस भावना में,
जो उनके शरीर को उनकी आत्मा से अलग कर देती है?
अब अगर शरीर और आत्मा दोनों विपरीत दिशाएँ चुनती हैं,
तो वे ज़िंदा कैसे रहते हैं?
और वे ज़िंदा रहते हैं तो उनकी आत्मा शरण कहाँ लेती है?
या फिर यह एक मायाजाल है और आत्मा कभी साथ छोड़ती ही नहीं?
लेकिन वास्तविकता में अगर ये अलग होती है,
तो क्या वो वापस लौट कर भी आती है?
ये कुछ ऐसे प्रश्न थे जिनके उत्तर मुझे ही खोज निकालने थे,
मगर इनके जवाब ढूँढने की चाह उतनी गहरी नहीं थी मुझमें,
क्योंकि इसका रास्ता तो उसी एहसास से होकर जाता था,
जहाँ से मुझे कतई नहीं गुज़रना था।
लेकिन क़िस्मत का मैं एक ऐसा खेल हूँ,
जहाँ दूसरों की नाव तैर रही हो,
वहीं एक डूबती नाव का मैं इकलौता मुसाफिर हूँ।
तो वो दिन आ ही गया
जब मुझे डर और एकांत का अनोखा संजोग प्राप्त हुआ।
और जब मुझे ये एहसास हुआ
तो चीज़ें बस टूटती ही रह गईं
उन अनगिनत टुकड़ों के बिखरने की आवाज़ मेरे कानों में गूँजती ही रह गयी,
मानो जैसे मेरे रूह मे समाई हो
एक सहमी हुई लहर,
अपने किनारों से बेख़बर,
वो मेरे भीतर जूझती ही रह गयी|
"एकांत... ..."
एकांत ही है इस लहर का नाम
जो मुझमें समाती है और मुझे ही समा लेती है,
चाहे दिन की सुनहरी रोशनी हो,
या रात की बिछाई काली चादर ही क्यों ना हो,
वो चुपके से, ना जाने कहाँ से बहती हुई चली आती है
और मेरे गोद मे आकर ठहर जाती है
वो बस ठहर जाती है।
यह एक अतिथि है और मैं, मै इनका सेवक
अब कैसे इस ख़ालीपन से भरे गोद को मैं खाली करूँ?
क्योंकि कभी मुझे ना ये सिखाया गया
एक पलती जीव का धिक्कार कैसे करूँ?
मगर क़िस्सा इधर कुछ अलग था,
एकांत ने एकांत को पुकारा था,
और जब जब ये एकांत इस एकांत को पुकारती है,
चीज़ें फिर से टूटने लगती हैं,
और वो टूटती ही जाती हैं
उनके बिखरने की आवाज़ मेरे कानों में गूँजती ही रह जाती है
फिर समर्पित कर देता हूँ मैं अपने आप को इस वक़्त में, जिसे कहते हैं, डर,
क्षणभंगुर ही सही यह वक़्त, लेकिन इसका प्रभाव गहरा ज़रूर होता है
और इस वक़्त के थम जाने पर वो सहमी हुई लहर जिसको मैं एकांत के नाम से पहचानता हूँ,
वो मेरे आँखों की नमी बन बहने लगती है।
वो बहती ही रह जाती है।
"एकांत ....."
तो जब ये एकांत इस एकांत को पुकारती है,
वो मेरे जीवन का एक छोटा सा टुकड़ा अपने साथ ज़रूर ले जाती है।