‘ढूँढ़ लेते हो तुम अवशिष्ट में
‘ढूँढ़ लेते हो तुम अवशिष्ट में
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जुटे रहते हो सुबह से शाम,
क्यों नहीं करते कुछ विश्राम ?
धूप हो या छाँव,
नहीं थकते तुम्हारे पाँव ?
धूल, धुआँ, चिलचिलाती धूप,
करते नहीं बेचैन, लगती नहीं भूख ?
पैरों में नहीं चप्पल, कपडों में नही बटन,
कैसे हो जाते हो इस काम में मगन।
तुम्हारे अंदर छुपा है हुनर,
तभी तो निकालते हो कीचड़ से कमल ।
अपने इस हुनर को रखो तुम सँभाल,
आगे चलकर तुम्हें करना है कमाल ।
कहती है तुम्हारे हाथों की लकीर,
उठो, बढ़ो आगे यही है तुम्हारी तकदीर ।
तुम्हारे ही कंधों पर देश का भार है,
क्या कहें तुमसे…… ?
हमें तुम पर नाज़ है ।
थोड़ी शिष्टता इस देश के लिए भी दिखाओ,
यह देश बिखर रहा है तुम कर्णधार बन जाओ ।
