चूक गए तुम!
चूक गए तुम!
हे शाक्य!
पूरी दुनिया पूजती है तुम्हें,
तुम्हारे घर छोड़ने पे
सराहती है तुम्हें,
तुम भिक्षुक बने,
ज्ञानी बने,
अपने सिद्धांतों पे चले,
पर ना तुमने पीछे
मुड़कर देखा,
ना ही जग ने मेरी सुध ली।
मैं अभागिन!
किसी ने ना सोचा,
कैसे जियूंगी मैं?
क्या जवाब दूंगी
इस समाज को,
हमारे अबोध शिशु को?
कैसे उसकी जिज्ञासा पर
अंकुश लगाऊंगी मैं?
और फिर मेरा क्या?
मेरे स्त्रीत्व का क्या?
नितांत अकेली,
यायावर -सी
कहाँ - कहाँ भटकूंगी मैं?
हे शाक्य!
तुमने सत्य की खोज तो की,
पर चूक गए तुम
पुरुष धर्म से,
समझ ना सके
स्त्री की अंतर्वेदना को!
कम से कम बताकर जाते,
देखते
मेरी शक्ति को,
परखते
तुम्हारी राह में बाधा बनती हूँ
या अंजूरी भरकर
तुम्हें द्वार तक
स्वयं ही विदाई देती हूँ?
पर जग की तरह ही
तुमने भी मुझे अशक्त समझा,
मेरी कोमल भावनाओं को
निर्बलता से आंका!
चूक गए तुम
नारी -शक्ति को परखने में,
हां शाक्य!
चूक गए तुम!
