औरत ही
औरत ही
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औरत ही समझती नहीं औरत को
जो खुद कभी समझाना चाहती थी
औरत ही मारती है उस औरत को
जो खुद कभी मार सहती थी
औरत ही रोकती है उस औरत को
जो खुद कभी उड़ना चाहती थी
औरत ही छीनती है किताबें
कल जो कभी पढ़ना चाहती थी
औरत ही जलती है उस औरत से
जो खुद कभी सँवरना चाहती थी
औरत ही रोकती है नाचने से
जो खुद कभी हर ताल पे थिरकना
चाहती थी
औरत ही रोकती है इश्क़ के राहों से
जो खुद कभी छुप छुप के आशिक़ को
ताका करती थी
औरत ही जोड़ती है उसे अनचाहे बंधन में
जो खुद कभी उस बात से डरती थी
यह औरत ही औरत की क्यों है दुश्मन
औरत ही तो औरत की शक्ति थी
एक बार दिमाग़ पर ज़ोर डालो और
समझो की औरत की शक्ति ने
ताज महल बनवा दिया था
और एक औरत ही झाँसी की रानी थी ।
