आवाज़-ए-रूह
आवाज़-ए-रूह


धूल होकर धूल पाया धूल मेंं ही जा मिला
ऐ बशर, इन तल्खियों से बोल तुझको क्या मिला।
हर इबादत मेंं जो तूने पाप धोये हर दफ़ा
पाप धोकर आरती-औ-अज़ान से क्या मिला।
जो लहू के नाम पर, तुझसे वो लहू बहा
बोल अब इन खून के छीटों को बहा कर क्या मिला।
ज़ख्म बोया, ज़ख्म पाया और खुद ज़ख्मी हुआ
बोल इन फसलों को भी बो कर के तुझको क्या मिला।
तेरे सुंदर सूरतों को मिलना कभी मिट्टी मेंं है
बोल ऐसी सूरतों को भी सजाकर क्या मिला।
काशी घूमा-घूमा क़ाबा, पर न रहनुमा मिला
बोल तुझको मन्दिर-औ-मस्जिद मेंं जा कर क्या मिला।
p>सूरमा कहता था खुद को, मिट्टी तक में दब गया
बोल ऐसा सूरमा होकर भी तुझको क्या मिला।।
देख क़ुदरत को कभी, ये कितने रंगों मेंं रंगा है
सूर्य की, महताब की और आसमान की क़ौम क्या है।
शान तेरी तब मैं मानू, जो बता पानी का मज़हब
आँक पाएगा कभी क्या मेरे मुरशिद की तू अज़मत।
रंग दुनिया के समझ कर बोल क्यों है चुप खड़ा
बोल भगवा और हरा करके भी तुझको क्या मिला।
ऐ 'वज़ीर' मत बता तू अपना मज़हब-ए-कलम
याद रखना तू बशर है, न कि खुदा-ए-हरम।
अपनों मेंं ही खलबली करके भी तुझको क्या मिला,
इस कलम को मज़हबी करके भी तुझको क्या मिला।