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Amit Kumar

Abstract

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Amit Kumar

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मोहताज़

मोहताज़

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सुबह होने को है

रात का पहर

बीत रहा है

यह अंधेरा भी खूब है

प्रत्येक दिन 


उजाला इससे

कुछ सीख रहा है

नई उमंगों को

खिलना है


बहारों की तरह

नए अंदाज को

महकना है

इन फ़िज़ाओं में

बिखरी खुशबुओं की तरह


अपने दिल के अरमान

अब दिल से

निकलने को बेताब है

यह अंधेरा भी खूब है

जो एक हल्की सी

रोशनी का मोहताज़ है


इसके दामन में

लिपटे जाने कितने

राज़ गहरे है

यह अलग बात है

हर ज़ुबाँ पर

चुप्पी के पहरे हैं


आओ इन राज़ों से

पर्दा उठाये

एक-एक राज़ को

कुरेदकर बाहर लाये।


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