यमा और अंगल
यमा और अंगल
दोपहर के करीब १२:३० बज रहे थे और मेरे मन में एक दुविधा की घड़ी चल रही थी।आज "अंगल" को जवाब देने की अंतिम तारीख थी इसी दुविधा के चलते मै जवाब ढूंढने तालाब के किनारे सटे पत्थर में जा बैठी वहाँ बैठे बैठे मुझे १ घंटा हो गया और उस १ घंटे में मेरे ज़ेहन में बस एक ही सवाल भ्रमण करता रहा , कि हर बार कि तरह कहीं इस बार भी जवाब देने में जल्दबाजी तो नहीं कर रही हूं,क्या फिर से सब कुछ बदल जाएगा ...
बस ख़्यालों की छुपम छुपाई में पीछे से इक हाथ मेरे कांधे पर आ गया मैंने फटाफट अपनी नज़र उस हाथ की ओर बढ़ाई तो देखा वो हथेली बेहद नाज़ुक स्थिति में थी ,बहुत से घावों से लहू अभी भी निकल रहा था मानो कुछ समय पहले के ही घाव हो ओर कई घाव तो पुराने प्रतीत हो रहे थे जिसके निशान भी मानो यातना दे रहे हो।औेर दर्द भरी इक आवाज़ आई मै य..... यमा हूं
उसके बाद मेरी नज़रें उसे देखने को हुई, मैंने नज़रें उठाई तो देखा यमा दिखने में मेरी हूबहू थी बस फ़र्क इतना था कि मेरे शरीर पर कोई घाव नहीं थे और उसके चेहरे पर सूखेपन के मुरझाए गड्ढे और घाव थे उसके बांए हाथ की तरह,
कहने को सलामत था तो वो था ,दांया हाथ जिसपर अभी तक न कोई पुराना घाव था न नया।यमा मेरा उदास चेहरा पढ़कर खुद ही पूरी बात समझ गई और सही फैसला लेने में मेरी सहायता करने लगी।
मुझे मेरे हर ग़लत फैसले के बारे में बताने लगी जिन फैसलों की हकीक़त जानते हुए भी मैंने उनपर अटल भरोसा किया था। जिसके परिणाम स्वरूप मुझे कई ज़ख़्म मिले उनमें से कई भरने के बाद भी अपने निशान छोड़ गए जो अभी तक यातना देते है और उन्हीं यातनाओं को दुनिया अनुभव नाम देती है।
मेरा मनोबल बढ़ने लगा और सोचा की आगे से कोई भी ऐसा फैसला न करू जिससे ख़ुदको ही यातना मिले बस इतना सोचते सोचते समय कब बीत गया पता नहीं चला ।
इतने में हाथों में गुलाब और चेहरे पर मिक़राज़ मुस्कान लिए "अंगल" मेरी ओर आता मुझे दिखा,पल भर के लिए मै "यमा" [घा(य)ल आत्(मा)] की बातों को भूल गई मैंने "अंगल"[(अं)तिम (गल)ती]का हाथ थामा और इतने में देखा की यमा का दांया हाथ भी नए ज़ख़्मो से भर गया और यमा धीरे धीरे मूर्छित हो गई