सत्य के प्रतिमान
सत्य के प्रतिमान
'सत्यं माता पिता ज्ञानं धर्मो भ्राता दया सखा
शांतिः पत्नी क्षमा पुत्रः षडेते मम बान्धवाः ।।'
महाशय जहाँ भी जाते, इस श्लोक को बोलकर मंच और दिल दोनों जीत लेते।
सभाओं में, गोष्ठियों में या सेमिनारों में गांधीवादी सत्य के प्रतिमानों पर अपनी वाचालता द्वारा सफल सम्भाषण दिया करते। कोतवाली से लेकर तहसील तक उनकी इज़्ज़त थी, यूँ कहें कि उनकी धाक थी।
सेठजी खाते-पीते घर के थे। लोगों को क़र्ज़ देने का पुनीत कार्य भी भी किया करते थे। एक दिन आगामी गोष्ठी-आयोजन संबंधी चर्चा के लिये मैं उनके यहाँ गया हुआ था।
मैंने देखा एक गरीब जैसा दिखने वाला आदमी उनके सामने बेबस-सा बहस करते हुए गिड़गिड़ा रहा था -सेठजी, मैंने दस हज़ार ही लिये थे आपसे।
सेठजी -अरे धूर्त, मेरे जैसा सत्यवादी आदमी तुझे मूर्ख नजर आता है क्या ? तूने पूरे पंद्रह हज़ार लिये थे, जो सूद समेत बीस हज़ार हो गए हैं।&
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आदमी -मैं गरीब हूँ, मालिक! कम से कम सूद तो क्षमा कर दें, मालिक! मैं तो मूल भी अभी दे पाने में असक्षम हूँ। दया करें मालिक, आपको आपके पूज्य पिताजी का वास्ता !
सेठजी (चिल्लाते हुए)-मेरे पिताजी होते तो सीधे पचास हज़ार लेते या तेरी ज़मीन रख लेते, बेवकूफ! मैं तो बस अपना धर्म निभा के तुझसे वाजिब पैसे मांग रहा हूँ।
आदमी-क्षमा मालिक, क्षमा ! मैं अभी कुछ भी देने की स्थिति में नहीं हूँ। बेटा भी लॉकडाउन में परदेस में फंसा हुआ है। आप स्वयं ज्ञानी पुरुष, दयानिधान हैं मालिक !
(पैर पकड़ लेता है )
सेठजी -ओ शांति ! अजय-विजय को भेजो, बहुत मुँह चलने लगा इस इस नीच का।
अब उनके पुत्रों द्वारा मैं उस गरीब लाचार को बेदर्दी से पिटते हुए देख रहा था, वो भी 'सोशल डिस्टैन्सिंग का पालन करते हुए!
श्लोकवाले सत्य के सभी प्रतिमान यह नज़ारा देख कर ठगे-से महसूस कर रहे थे !