*सहारा*
*सहारा*
संध्या का समय था। शाम के करीब सात बज रहे थे । सूर्यास्त लग भग हो ही चुका था। चांद भी नजर आने लगा था । रास्ते के दिए भी शुरू हो चुके थे। दफ्तर से काम खत्म कर मैं घर की ओर निकल पड़ी थी ।
रास्ते में एक गली से गुजर रही थी जो मेरे घर की ओर ही जाती थी।दिन भर की थकी हुई, भूख भी जोरों की लगी पड़ी थी। मोबाइल की बैटरी भी मेरे आज जरा भी ना बची थी।सुनसान सी गली, कहने को गली के दोनों सिरों पर मकान थे पर अजीब सन्नाटे से लेस थे मानो कोई रहता ही ना हो उन मकानों में।मैं तेज़ी से गली से गुजरते अपने घर की ओर चल पड़ी।
मन घबराया हुआ था मेरा वजह सन्नाटा ही था कि अचानक कुछ आहट सी महसूस हुई। मेरे बाएं ओर किसी की परछाई होने का आभास मुझे हुआ। मानो कोई मेरे बिल्कुल पीछे ही आ रहा हो।
मैंने तुरन्त अपनी चाल धीमी कर अपने कदम को लगाम लगाई और पीछे मुड़ कर देख। वहां कोई नहीं था। शायद वो आहट हवा से उड़ते रास्तों पर पड़े उन सूखे पत्तों की थी और वो परछाई, वो परछाई किसी ओर की नहीं बल्की मेरी खुद की ही थी।
मैं मंद मुस्कुराई इस स्वार्थी जमाने में अपना जो साथ दे ऐसे कहा अब कोई। खुद ही तो खुद का सहारा हूं ये सोच मैं आगे घर की ओर पुनः निकल पड़ी।