पत्रिका का अन्त
पत्रिका का अन्त
लेखकों की गोष्ठी में कोई पचास से अधिक लेखकों ने अपनी संवेदनशील रचनाओं के माध्यम से एक दूसरे से खूब वाह-वाही लूटी। इसी दिन युवा संघर्षशील लेखक द्वारा संपादित पत्रिका का विमोचन भी किया गया। संपादक ने सभी लेखकों को पत्रिका बांटी। बहुतों ने संपादक को बधाई दी।
अध्यक्ष ने विमोचन के बाद कहा-‘हम संवेदनशील लेखक हैं, समाज की पीड़ा, दुःख-दर्द को अपनी रचनाओं के माध्यम से व्यक्त कर समाज को उसका आईना दिखाते हैं। साहित्य के प्रति लोगों का रूझान कम होने के कारण धीर-धीरे साहित्यिक पत्रा-पत्रिकाएं समाप्त हो रही हैं। हम जैसे लोगों का नैतिक कर्तव्य बन जाता है कि ऐसी बढ़िया और खूबसूरत पत्रिका की वार्षिक सदस्यता लें, ज्यादा नहीं तो कम से कम हम सबको इस अंक का मूल्य जो मात्रा 20 रुपये है संपादक बन्धु को अवश्य देना चाहिए। जिससे पत्रिका के संपादक को आत्मबल मिलेगा और जो इसके प्रकाशन में बेहद सहयोगी रहेगा।
सभा समाप्त हुई। धीरे-धीरे एक-एक करके सभी लेखक चले गये। एक भी लेखक ने संपादक को वार्षिक शुल्क तो क्या, बीस रुपये देने की भी दरियादिली न दिखाई।
संपादक सोच रहा था जिन संवेदनशील लेखकों के लिए वह अपने बच्चों के हिस्से की राशि से पत्रिका छाप रहा है, क्या वह सही कर रहा है? उसके भीतर से आवाज़ आई -‘नहीं।’ संवेदनशील लेखकों का दोहरापन उसे भीतर तक कचोट गया।
इसके बाद पत्रिका का कोई अंक नहीं छपा।
