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ambika sehgal

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पिंजरा

पिंजरा

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पिंजरा

लेखिका: अम्बिका सहगल

कॉपीराइट@2025 अम्बिका सहगल| सर्वाधिकार सुरक्षित|

इस पुस्तक का कोई भी भाग,लेखिका की पूर्व लिखित अनुमति के बिना , किसी भी रूप में –प्रिंट, इलेक्ट्रोनिक,फोटो कॉपी,रिकॉर्डिंग या अन्य किसी माध्यम से – पुन: प्रस्तुत,संग्रहीत या प्रसारित नहीं किया जा सकता है|

यह पुस्तक एक काल्पनिक रचना है| इसमे वर्णित पात्र,स्थान ऑर घटनाएँ लेखिका की परिकल्पना पर आधारित है|

किसी जीवित या मृत व्यक्ति से समानता महज संयोग हो सकता है|

प्रथम संस्करण: 2025

पिंजरा

मैं निर्भय इस कहानी का मुख्य पात्र, लेकिन मुझमें मेरे नाम जैसा कुछ भी नही,मैं भयभीत हूँ, मैं अतीत में भी भयभीत था, मेरा वर्तमान भय के साये में है, लेकिन उम्मीद करता हूं भविष्य इस भय से दूर होगा।

 मैं उम्मीद नहीं छोडूंगा, कल से बेहतर आज है और मेरे आज से बेहतर मेरा भविष्य होगा।

शायद मेरे परिवार ने यह नाम बहुत सोच कर रखा होगा, लेकिन वह भी तोह अनभिज्ञ थे तब तक मेरे नाम की निरर्थकता को लेकर।

क्या प्यार की अनुभूति इतनी तुच्छ है की उसको सिर्फ जिस्मानी सम्बंधो के दायरे में बांध दिया जाये,

प्यार इतना तुच्छ कैसे हो सकता है,

तुच्छ तोह वह सोच है जिसने मुझे कमजोर कर दिया , मेरी अपनी छोटी सोच ने।

मैं जिंदगी के 46 सावन देख चूका हूँ, और इन बीते सालों में मैंने प्यार के शायद ही किसी रूप को ना देखा हो।

मैं साक्षी हूँ,

 उस एकतरफा प्यार के सुकून, उस अहसास का, जहां यह एकतरफा हैं जहां उम्मीद नहीं बस समर्पण है,

जहां ना कुछ छीन जाने की चिंता ना कुछ खोने का डर,

जिस प्यार को जरूरी नहीं की खुली आँखों से ही जिया जाये,

जोह बंद आँखो से भी उतना ही गहरा उतना ही चेतन है,

जहां कोई दायरे नहीं, कोई बंदीशें नहीं हमारे होकर भी वह बेखबर हैं,

और हमने सब दूरियां मिटा दी नींद के आगोश में, जो प्यार सब बंधनों से दूर है, जोह किसी नाम के रिश्ते का मोहताज नहीं।

लेकिन अकस्मात उसी प्यार का हकीकत में सामना, उसके लिए अप्रत्याशित और असहज था, लेकिन छोड़ने के लिए भी तोह मिलना जरूरी है।

 उस दिन प्यार अपनी मंजिल पा गया।

उस दिन सपना का सालों बाद ऐसे टक्कर जाना यह इतिफाक था या किस्मत का कुछ इशारा, सोचता हूँ, तोह और कशमकश में फंसा महसूस करता हुँ।

पापा की पोस्टिंग दिल्ली हो गई थी, बहुत खिन था मन सभी दोस्तों से दूर नहीं जगह जाना।

“नया स्कूल, नया घर, नए दोस्त नया माहौल होगा निर्भय “

यह नया शब्द जिसे पापा बार बार मुझे रिझाने के लिए दोहरा रहे थे यहीं शब्द मेरे मन में डर पैदा कर रहा था।

मैं उस कुंए के मेंढक की तरह बना हुआ था जिसे अपने उस कुंए से बाहर की दुनिया से मतलब नहीं था जिसकी दुनिया वहीं कुंए तक सिमित थी।

जिसे सही शब्दों में कहूँ तोह शायद मेरे बाल मन में बदलाव के प्रति उदासीनता एवं भय था, जहाँ कोतुहुल,जिज्ञासा होनी चाहिए थी नये अवसरों को नये लोगों से मिलने उनको जानने की, नये शहर को देखने की वहां बस अनजान भय, निरस्ता और अपने अपनों का साथ छूठने का गम।

लेकिन मेरे अपने, मेरे परिवार के लोग तोह मेरे साथ जा रहे थे पापा, मम्मी और अमित फिर क्यों छूटने का डर था लेकिन शायद मेरा मन उस समय उनसे वह लगाव महसूस नहीं कर पाता था या वह अनुभूति भी मेरे भय के साये में कहीं दबी हुई थी।

पापा मम्मी का हर रोज का वह लड़ाई, झगड़ा

पापा का वह दम्भ, वह सरकारी अफसर होने का अहंकार, मम्मी का बात बात पर खीज जाना ,एक दूसरे को निचा दिखाना मेरे बाल मन पर बहुत बुरा असर डाल रहा था, अमित इन सब से बेफिक्र अपनी जिंदगी जीना सिख गया था।

ऐसे में मेरे लिए मेरे अपने वो दोस्त भी मुझसे अलग हो रहे थे.

लेकिन मेरे सारे संशय, भय धीरे धीरे खत्म होने लगे जैसे जैसे मैं इस शहर को और यह शहर मुझे अपनाने लगा।

पापा को सरकारी आवास आबंटित हुआ, जहाँ आस पास पापा के सहकर्मी अपने परिवार के साथ रहते थे।

और उन्हीं परिवारों में एक था सपना का परिवार जोह हमारे बगल वाले फ्लैट मैं रहते थे।

उससे वह पहली मुलाक़ात की याद आज भी ऐसे दिलो दिमाग़ में ताज़ा है जैसे कल की ही बात हो,

अभी हमें घर में आये मुश्किल से आधा घंटा भी नहीं हुआ था और इतने में ही दरवाजे की घंटी बजी सामने एक 14,15 साल की लड़की हाथ में चाय की ट्रे लिए खड़े थी।

दरवाजा मैंने ही खोला था उससे पहले की में कुछ पूछता वह अंदर चलें आई और बोलना शुरू किया “

नमस्ते आंटी अंकल ज़ी माँ ने आप लोग के लिए चाय भेजी है, हम साथ वाले फ्लैट में ही रहते हैं, रात का खाना मम्मी ने कहा है की आप हमारे यहां करें “

 वह इतना बोल के मेरे हाथ मैं ट्रे पकड़ा के भाग गई इससे पहले की हम कुछ प्रतिक्रिया देते वह जा चूकि थी।

शाम में हम उनके घर पहुँच गए, बहुत ही करिने से सजाया हुआ घर उनके घर में बस वह तीन ही लोग थे, सपना उनकी इकलौती संतान थी, आंटी भी सरकारी स्कूल में अध्यापक थी, अंकल से परिचय हुआ तोह पता लगा अंकल और पापा का विभाग भी एक ही था।

बीच बीच में सपना हमें और हम उसे घूर रहे थे,

खाना खाते खाते पता लगा वो दसवीं क्लास में थी, मतलब मेरी और अमित दोनों की जूनियर।अमित का स्कूल खतम हो चुका था और वह डॉक्टर बनना चाहता था, तोह उसी के लिए प्रतियोगी परीक्षाएं दे रहा था.

मेरा भी जल्द ही इलेवेंथ क्लास में एडमिशन हो गया पास के स्कूल में ही।

कुल मिलाकर पुरानी यादें धुंधली पड़ रहीं थी और मैं भी इस शहर के रंग में रम रहा था।

 नये दोस्त बन रहे थे और मजे की बात थी की उनमें से बहुत तोह सोसाइटी के बच्चे ही थे, जिनमें एक सपना भी थी।

सबका साथ जाना वापिस आकर वहीं घंटों बातें करना खेलना सब साथ साथ चल रहा था और मेरे लिए यह किसी सुन्दर सपने से कम नहीं था।

धीरे धीरे दिख रहा था मम्मी पापा के बीच की वह दूरियां मिट रहीं थी,

माँ अब यहां नये सिरे से जिंदगी के धागों को पिरोने की कोशिश कर रहीं थी, उन्होंने पास के ही एक प्राइवेट स्कूल में जॉब करना शुरू कर दिया था।

 माँ भी व्यस्त रहती और शाम तक उनमें भी शायद लड़ने की क्षमता नहीं रहती थी। वह खुश थी तोह पूरा घर खुशी के माहौल में ढल रहा था, आखिर एक स्त्री ही परिवार की नींव होती है, हमारे घर की नींव मजबूत हो रहीं थी।

 सपना का हमारे घर कभी भी आ जाना अमित को जहाँ बहुत अखरता, मैं उन पलो का इंतजार करता।

सपना और मैं खुलने लगे थे, सपना जब भी पढ़ाई में कुछ समझ नहीं आता वह मुझसे समझने आ जाती थी।

वह उसका मेरे नजदीक बैठना, जाने अनजाने हमारा एक दूसरे को स्पर्श कर जाना मेरे शरीर में अजीब सा रोमांच भर देता।

इसी बीच अमित का मेडिकल कालेज में एडमिशन हो गया और वह हास्टल चला गया।

सपना और मेरा मिलना भी कम हो रहा था, उसके लिए ट्यूशन लगाया गया था ताकि वह और अच्छे से तैयारी कर सके।

और मैं तोह इस शहर की बेपरवाह रफ्तार में कहीं भटकता जा रहा था, दिन भर मस्ती करना, लड़कियों को ताड़ना जी हाँ ताड़ना।

अपने उस समय के व्यवहार को मैं इससे सभ्य शब्दों से नवाज नहीं पाऊँगा।

मैं अपनी जिंदगी के बहुत ही संजीदा पहलु को छेड़ रहा हूँ, जोह मेरे लिए संजीदा हैं, हो सकता है बहुत से पाठकों के लिए यहां से मेरी कहानी फूहड़ता, अश्लीलता के शब्दों के दायरे में आ जाये और उनको इसे पड़ना भी अपनी मर्यादा का उलंघन लगे।

 फिर भी मैं उम्मीद करता हूँ, मेरी अपने नाम निर्भय को सार्थक करने की कोशिश, मेरे सालों से चल रहे भीतर के अंतरदवंद को सामने लाने की कोशिश और मेरे जैसे बहुत से ऐसे लोग जोह अपना सच कभी स्वीकार भी नहीं पाएंगे उनके अपने आप से जोह लड़ाई चल रहीं है उसको सामने लाने का प्रयास समझ कर आप मुझे और मेरी मनोस्थिति को समझने का एक प्रयास करेंगे।

मैं पढ़ाई मैं अच्छा कर रहा था यह एक ऐसा तथ्य था जिससे मेरे आस पास का हर व्यक्ति वाकिफ था, और इसी लिए मेरे मम्मी पापा भी निश्चित थे मेरे भविष्य को लेकर।

मेरी लड़कियों के प्रति आसक्ति बढ़ती ही जा रहीं थी, जो आसक्ति उनके साथ बैठना, उनसे बातें करना या जाने अनजाने शारीरिक स्पर्श तक सिमित नहीं थी।

 दिन के उजाले में उन्हें देखना उनको निहारना और रात की ख़ामोशी में सभी बंदिशों से दूर सपनों की दुनिया में हर दायरे हर बंदिश को तोड़ देना, और धीरे धीरे मुझे दिन के उजाले कोफ्त देने लगे।

जिंदगी यूही चले जा रहीं थी, सच कहूँ तोह मैं उस समय को बेबाकी से जि रहा था, सभी की नजरों में मैं एक बहुत ही सभ्य, पढ़ाई में आगे खेल कूद में अवल इंसान जोह दूसरे बच्चों के लिए भी प्रेरणा का स्रोत बन रहा था।

मेरा कभी भी डॉक्टर इंजीनियर बनने का सपना नही रहा, मुझे तोह CA बनना था और मैंने इसके लिए मेहनत शुरू कर दी थी और कॉलेज के साथ साथ ही मेरे ca के काफी विषय निकल रहे थे उधर सपना का भी अच्छे कॉलेज में एडमिशन हो गया था वह केमिस्ट्री में पीएचडी करना चाहती थी।

अमित की पढ़ाई भी पूरी होने वाली थी वह भी बीच बीच में घर आता और फिर हम सब की महफ़िल जमती जहाँ मोहल्ले के बच्चे ( खैर अब हम बच्चे तोह नहीं रहे थे ) इक्कठे होते और फिर मिल के धमाल मचाते।

हर तरह की बातें होती, सब के अपने किस्से, कहानियाँ होते।

अमित को अब सपना का आना अखरता नहीं था, अपितु वह उसकी बातों को बहुत दिलचस्पी से सुनता उसको आगे के लिए गाइड करता।

सपना और मेरा जब भी टकराना होता मैं देखता वह शरमा सा जाती और उसकी कोशिश होती मेरे साथ ज्यादा से ज्यादा वक्त बिताने की।

वह घंटों बातें करती रहती और मैं उसको निहारता रहता, बीच बीच में जब उसको लगता की मैं सुन नहीं रहा तोह वह मुझे आवाज लगाती और मैं फिर अपनी सोच अपनी दुनिया से बाहर आता।

जिंदगी यूं ही बढ़ती जा रहीं थी अमित डॉक्टर बन गया और कुछ समय में मेनें भी ca कर लिया।

उसकी नौकरी अच्छे हॉस्पिटल मैं लग गई और वह आगे की पढ़ाई की तैयारी के साथ साथ नौकरी करने लगा।

मैं भी अच्छी जगह जॉब लग गया ट्रेनिंग के बाद।

घर में जैसे खुशहाली चारों तरफ से बरस रहीं थी,

वह पल मेरी इतने सालों की अपने परिवार के प्रति दबी सवेन्दनाओ, भावनाओं, को महसूस कराने में बहुत मददगार साबित हुऐ।

उन्हीं दिनों अमित और मैं अच्छे दोस्त बनते जा रहे थे, जोह फासले सालों से चले आ रहे थे वह धीरे धीरे मिट रहे थे।

हम दोनों को एक दूसरे का साथ भाने लगा था।

 सालों बाद हम चारों एक साथ समय बिताने लगे थे, मम्मी पापा के कमरे से अकसर ठहाकों की आवाजें आती।

सब अच्छा चल रहा था लेकिन मेरा अंतदवंद बढ़ता ही जा रहा था, अपनी इस बाहरी दुनिया की छवि को बनाये रखने के लिए।

लेकिन उस अंदरूनी आईने का क्या करता मैं, जहाँ मेरे लिए औरत का अस्तित्व उसके शारीरिक संरचना से उपर कुछ देख ही नहीं पा रहा था, मेरे लिए हर औरत एक भोग्य वस्तु थी।

जिसे दिन के उजाले में भोगने की गुस्ताखी तोह अभी तक मेरा भयभीत अस्तित्व नहीं कर पाया था, लेकिन ना जाने अपने सपनों में कितनों की आबरू मैं तार तार कर चूका था।

उस दिन मुझे अपनी तबीयत कुछ सही नहीं लग रहीं थी तोह मैं घर पर ही था, दरवाजा बंद करने लगा तोह सामने सपना की नजर मुझ पर पड़ी, बातचीत में उसको मेरी तबीयत का पता लगा मेरे मना करने के बावजूद वह आकर मेरे लिए चाय बनाने लगी।

मैं आकर कमरे में लेट गया, लेकिन आज मेरे अवचेतन मन की ख्वाइशे सपना को देख कर हकीकत का रूप देने के लिए उमड़ पड़ी थी, मेरे अंदर एक तूफान उठ रहा था जिसे आज रोकना नामुमकिन प्रतीत हो रहा था,

ऐसे में सपना चाय लेकर आई और मेरे सिरहाने बैठ कर मेरे माथे को छूकर बोलीं “बुखार तोह नहीं है”।

पर मेरा ध्यान ही कंहा था उसकी बातों पर,

 इससे पहले वह कुछ और कहती या सुनती मैंने सपना को अपनी तरफ खींचा।

मेरे होंठ उसके होंठों को चूमने ही वाले थे सपना ने शरमाते हुऐ अपने हाथ मेरे होंठों पर रख दिए।

मैंने सपना को बिस्तर पर खींच लिया, और जहाँ तंहा उसे चूमने लगा, मुझसे कुछ अनर्थ होता उससे पहले एक जोरदार तमाचा मेरे मुंह पर लगा, मैं कुछ समझ पाता उससे पहले सपना फुरती से बिस्तर से उठी और अपने कपड़े सही करती हुई तेज कदमों से बाहर को लपकी।

अमित घर की दहलीज़ पर था, वह सपना को सवालिया नजरों से देख रहा था लेकिन वह तेजी से बाहर निकल गई, मैं सहज होता हुआ अमित कि सवालिया नजरों से बचता हुआ मुंह घुमा कर सोने का अभिनय करने लगा।

 मैं अपने ख्यालों को अमली जामा देने में इतना अंधा हो गया था कि मैं महसूस ही नहीं कर पाया कि उस दिन मैंने कितने रिश्ते खो दिए।

अमित ने मुझसे कुछ ना पूछा ना मैंने ही कुछ सफाई देनी चाही, मैं वैसे भी अपनी खुद कि बनाई उस दुनिया में इतना खोया हुआ था कि मुझे होश ही कहाँ था कि मैं सोचता या समझता किसी और कि जिंदगी में आये तूफान को।

कुछ बदलने लगा था मेरे और अमित के बीच, जहाँ हमने अपने बिखरे हुऐ रिश्तों को समेटने संजोने के तरफ कदम बढ़ाये थे,

 अमित के कदम अब फिर से सिमटने लगे थे, वह मुझसे दूर हो रहा था और मैं शायद कुछ महसूस तोह कर पा रहा था टूटते रिश्ते कि उस आहट को, लेकिन मेरे अंदर का वह भय मेरे अंदर की वह आग मुझे इतना घेरे हुऐ थी की, मैं बस अपने ही सोच के मायाजाल में जकड़ा हुआ था।

अभी ज्यादा समय नहीं बिता था की जब एक दिन माँ के मुंह से सुना

 “ सपना की शादी तय हो गई, पता ही नहीं लगा सब बड़ी जल्दी तय हो गया “

मैंने सुना और कमरे मैं आ गया पीछे पीछे ही अमित भी आ गया और बोला

“ तुम और सपना एक दूसरे को पसंद करतें हो ना”?

मैंने कहा” नहीं ऐसे तोह कोई बात नहीं “

अमित गुस्से में बोला “ तोह फिर उस दिन जोह मैंने देखा वह क्या था? “

मैंने बहुत ही बेशर्मी से जवाब दिया

 “ तेरी गलतफहमी”

अमित कुछ बोले बिना कमरे से निकल गया।

मैंने उस दिन के बाद सपना से ना कभी माफ़ी मांगने की कोशिश की ना ही उसके सामने गया, जब कभी अपने किये पर शर्मिंदगी महसूस भी होती, मैं अपने आप को कहीं और उलझा लेता।

सपना की शादी हमारे फ्लैटस के बीच बने बड़े से ग्राउंड मैं शामियाना लगा कर ही हुई।

 हमारे जमाने में रिश्तेदार बाद में हाथ बंटाते थे उससे पहले पडोसी आकर एक परिवार की तरह खड़े होते थे, मोहल्ले के सभी लोग अपनी अपनी हैसियत के हिसाब से काम संभाले हुऐ थे, अमित और मुझे भी काम दिए गए थे, जिन्हें हम निपटा रहे थे।

उस दिन मैं कमरे में प्रवेश कर ही रहा था कुछ हिसाब देने के लिए तभी मेरे कदम ठिठक गए जब घर के पीछे वाली गलीं से अमित और सपना की बातचीत की आवाज आई,

“ सपना प्लीज मुझे समझने की कोशिश करो मैं तुम्हें सालों से प्यार करता हूँ, बस इंतजार कर रहा था सही समय पर अंकल आंटी से तुम्हारा हाथ मांगने का,

 लेकिन जब मैंने उस दिन तुम्हें और निर्भय को देखा तोह मैं पीछे हट गया, लेकिन यहां तोह तुम किसी और की बनने जा रही हो। “

सपना बोलीं “ अमित मेरी शादी होने वाली है मुझे पीछे मुढ़ कर नहीं देखना किसी भी रिश्ते को”

और सपना वहां से निकल गई।

विदाई के समय सपना कि कातर आँखें जैसे मुझसे बहुत कुछ कह रहीं थी, मैं नजरें चुराता हुआ इधर उधर देखने लगा,

अमित शादी में शामिल ही नहीं हुआ यह बोल के कि आज हॉस्पिटल में कुछ इमरजेंसी है।

पर कईं रातों तक मैंने अमित कि वह बेचैनी, वह लाचारगी, वह हारने कि बेबसी महसूस कि थी,

बहुत बार मन हुआ जाकर बात करूँ, लेकिन बात करने कि हिम्मत ना हुई।

और फिर मैं अपने ही बनाये मायाजाल मैं सुकून ढूंढ़ने लगा,

 मेरी बेताबी बढ़ती ही जा रहीं थी, और बढ़ रहा था मेरा संघर्ष जहाँ मुझे अपने दोहरे अस्तित्व में संतुलन करना बमुश्किल होता जा रहा था।

ऑफिस कि बहुत सी लड़कियां मुझे कहें, अनकहे अपने मेरे प्रति जज़्बात प्रकट कर चुकी थी, और मैं शालीनता कि चादर ढक्के उन्हें इनकार कर चूका था।

लेकिन रात का क्या, मेरे ख्वाब जहाँ हर रात उनका चीर हरण करते थे।

मैं ऑफिस में डरा सहमा रहता, हर लड़की से दूरी बना के रखने की कोशिश करता, कहीं फिर मेरे अंदर की वह हैवानियत मेरे इस अस्तित्व पर भारी पड़ गई तोह क्या होगा?

सपना ने कुछ कहा नहीं था, लेकिन उसकी ख़ामोशी उसकी वह नजरें ऐसा बहुत कुछ बोल गई थी जिन्होंने मुझे सच का आईना दिखा दिया था जिसने मेरे अंतरमन पर गहरी चोट की थी।

लेकिन मेरी बाहय छवि अभी भी उतनी ही निश्छल थी, उतनी ही साफ सुथरी थी, जिसपर अभी मेरे अंतरमन की गर्त नहीं गिरी थी।

मुझे डर था मेरी उस बाहय छवि के टूटने का उसके बे आबरू होने का,

 जहाँ मेरा अस्तित्व ही सवालों के घेरे में आ जाता, अभी मुझसे अमित की सवालिया नजरों से नजर मिलाने की हिम्मत नहीं थी फिर मैं कैसे सामना करता मेरे अपनों की ही नहीं, गैरो की भी जोह उँगलियाँ मेरी तरफ उठती।

मेरे भीतर एक तूफान था जिसका सामना मुझे ही करना था।

दिन निकलते जा रहे थे, अमित के लिए शादी के रिश्ते आने लगे थे मम्मी पापा भी चाहते थे कि हम दोनों भाई अब अपने निजी जिन्दगी में भी सेटल हो जाएं।

 वह तोह नावाकिफ थे हम दोनों कि ज़िंदगियों में चलते तूफानों से,

मुझे इतना तोह समझ आ रहा था, अमित को कुछ समय चाहिए था अपने अंदर ठहराव लाने के लिए क्योंकि ऐसे समय में शादी ना उसके लिए सही होती ना उसके भावी जीवनसाथी के लिए।

आप लोगों को लग रहा होगा मेरे जैसा व्यक्ति ऐसी बातें भी कर सकता है क्या?

मानता हूँ, मैं वैसा नहीं जैसे पति कि इच्छा कोई औरत करेगी।

लेकिन यहां बात अमित कि थी, और मैं उस दिन भी यह बात विश्वास से कह सकता था और आज भी कह सकता हूँ अमित जैसे जीवनसाथी को पाना किसी भी स्त्री के लिए खुशकिस्मती होती।

अमित ने जयपुर के किसी हॉस्पिटल में अप्लाई किया था हमें तब पता लगा जब वहां से उसके चयनित होने कि चिट्ठी घर पहुंची।

मम्मी पापा अचरज में थे, अमित यहां काफी अच्छे हॉस्पिटल में और अच्छे ओहदे पर था।

पर मैं समझ पा रहा था उसकी कशमकश और उसके लिए निर्णय को।

 उस परस्तिथि में मुझे लगता है, यहीं सब से सही कदम था।

पापा कि रिटायर्मेंट का समय भी आ गया, दिल्ली कि जिंदगी में अब तक मम्मी पापा भी रम गए थे तोह हम यहीं के होकर रह गए।

बस सरकारी क्वार्टर को खाली करके अपने मकान में आ गए, वह घर वह लोग छोड़ने हम सभी के लिए बहुत भारी रहा लेकिन यह तोह होना ही था।

अमित के जीवन में मालती के रूप में खुशियाँ आईं, मालती अमित के साथ ही हॉस्पिटल में थी।

मैंने मालती से कभी नजरें मिला कर बात नहीं कि,

और वह दायरा,वोह दूरी हमेशा बरकरार रखा।

मुझमें हिन् भावना आने लगी थी, मुझे लड़कियों से बात करने में डर लगता, मुझे डर लगता कि जिन पलों को मैं ख़्वाबों, मेरी कल्पना में पता नहीं कितनी बार और कितनों के साथ जी चूका, क्या असल में भी मैं इसके काबिल हूँ?

और इन्हीं सवालों का जवाब जानने मेरे कदम उन बदनाम गलियों कि तरफ बढ़ने लगे,

शायद मेरा जमीर अभी उतना नहीं मरा था जोह किसी कि बेबस आँखों में देखता उसकी इज्जत को तार तार कर दे,

उन दिनों इतना तोह खुद को जरूर समझ पाया था मैं, मेरा अवचेतन मन मुझे जिन ख़्वाबों के दलदल में समा रहा था, उससे अभी मेरे चेतन मन का फासला कुछ तोह बाकी था।

मुझे आज भी याद है उस लड़की का वह डरा सहमा चेहरा वह कमरे कि चिटकनी लगा कर मेरे नजदीक आने लगी, मैं हैरान था आज उसकी इतनी नजदीकी भी मेरे भीतर के उस जानवर को जगा ना पाई, मुझे तोह बस उसकी बेबस आँखें नजर आ रहीं थी।

उन गलियों में तोह दोबारा नहीं गया, लेकिन समझ गया था मैं, वह गलिया बदनाम उनमें रहने वालों से नहीं बदनाम तोह उनमें जाने वालों से हैं।

अंतर्मन में उलझने बढ़ती ही जा रहीं थी,

मेरी नजरें झाँकना चाहती थी सब के भीतर, देखना चाहती थी सबकी सच्चाई।

क्या हर इंसान बहरूपिया है,

क्या सबके भीतर ऐसी ही दुविधा, ऐसा तूफान है?

ना जाने कितने सवाल आते और बाहर कि मेरी छवि से टकरा के दम तोड़ देते।

लेकिन इन सब में भी मेरे ख़्वाबों कि महफ़िल निरंतर लग रही थी,

अमित, मालती बीच बीच में घर आते तोह घर का माहौल खुशनुमा हो जाता,

 मालती अमित की जिंदगी का सुकून बन कर आई थी, और वह सुकून उसके चेहरे पर दिखने लगा था, मम्मी पापा अब अमित कि तरफ से निश्चित से हो गए थे और शायद मैं भी।

लेकिन अमित की बेरुखी मेरे प्रति अभी भी बरकरार थी, कभी लगता उसके गले लगके बोल दूँ जोह भीतर चल रहा हैं, लेकिन मेरा भय शब्दों को जुबान तक आने ना देता।

इस फाँसले,दूरी की वजह मैं ही था तोह मुझे ही इसको मिटाना था।

घर वालों का मेरी शादी को लेकर दवाब बढ़ता जा रहा था, कोई कारण भी तोह नहीं था की मैं इनकार कर पाता।

मैंने भी अपने आप को किस्मत के हवाले कर दिया था,

और किस्मत ने ही सुधा को मेरी जिंदगी के अधूरेपन को भरने के लिए मेरी जीवनसाथी के रूप में मेरी जिंदगी में शामिल किया।

सुधा और मेरी पहली मुलाक़ात हमारे परिवारों की सहमति से एक होटल में हुई,

सच कहूंगा उसी मुलाकात में मैंने उसे अपने भावी जीवनसाथी के रूप में स्वीकृति दे दी थी, लेकिन वहां शायद मेरा कारण सिर्फ और सिर्फ उसकी खूबसूरती था, मैंने बहुत कुछ जानना ही नहीं चाहा उसके बारे में।

लेकिन मेरी खुशकिस्मती थी, सुधा सूरत से ही नहीं सिरत से भी उतनी ही खूबसूरत थी।

मैं बेताबी से दिन काटने लगा, दिन रात बस उसके ख्वाब देखने लगा,

और वह दिन भी आ गया जब सुधा हमारे घर आई, सब रिश्तेदार भी चले गए।

अमित मेरे पास आया और बोला “अपनी शादी को शिद्दत से निभाना”।

मेरी प्रतिक्रिया से पहले ही वह वहां से चला।

रीति रिवाजों के खत्म होते होते शाम हो गई थी,

मैं देर रात तक ही कमरे में पहुंचा, सुधा बैठें बैठें ही सो गई थी, आखिर इतने दिनों की थकान थी,

आज पहली बार मैं उसे इतना नजदीक से देख पा रहा था, ऐसा लग रहा था भगवान ने बड़ी फुरसत से उसे बनाया हो ,

इतना गोरा रंग, हीरे की तरह तराशे नयन नक्श, उसे देख कर मुझे अपनी किस्मत पर गुमान हो रहा था।

मन की हसरतें अपनी चरम सीमा पर थी,

और यह परवाह किये बिना की वह गहरी नींद में थी, मैं उसे नोचने कटोचने लगा।

उसके लिए भी यह अप्रत्याशित था शायद, लेकिन उसने विरोध नहीं किया,

उसने पूरी तरह अपने को समर्पित कर दिया।

मुझे जैसे मेरे सपनों को हकीकत में जिने का मौका मिल गया हो, और मैं उसी धुन में सुधा को एक खिलौने की तरह नोचता, खसोटता दिन रात।

सुधा फिर भी कुछ प्रतिकार ना करती।

इतने दिनों के साथ के बावजूद भी मैंने उसके साथ बैठ कर बातें करना और उसे जानने समझने का प्रयास तक नहीं किया था।

सुधा और मेरी छुट्टियां खतम हो गई थी,

ओह मैं आप लोगों को भी उसका उतना ही परिचय दे पाया जितना मैंने खुद उसको जानना चाहा था,

वह MBA थी अच्छी कंपनी में काम कर रही थी, घर के कामों को भी वह बे खुबी करना जानती थी।

कुल मिलाकर उसमें वह सब कुछ था जिससे ज्यादा की अपेक्षा शायद ही कोई अपने जीवनसाथी से रखे।

जिंदगी अन्यत्र चले जा रहीं थी, और अब मैं भी शायद सुधा की शारीरिक खूबसूरती से ऊपर उसमें कुछ और देख पा रहा था,

लेकिन जोह नहीं देख पा रहा था उसकी धीरे धीरे बढ़ती उदासी,

सुधा में शुरुआत में जिज्ञासा नजर आती थी मुझ को लेकर, मेरे परिवार को लेकर

जैसे वह सब जान लेना चाहती थी उस हर एक दिन के बारे में जोह हमने साथ नहीं गुजारा था,

और मैंने कुछ महीनों में ही उस जिज्ञासा को जैसे मार ही दिया था,

वह बिना कुछ कहे, बिना कुछ पूछे बस मेरी मर्जी को जिए जा रही थी।

उस दिन सुबह से ही मुझे मेरी तबीयत कुछ ठीक नहीं लग रहीं थी, पर फिर भी मैं ऑफिस चला गया।

लेकिन दोपहर होते होते मेरे पुरे बदन में सिहरन सी होने लगी मैं ऑफिस से घर के लिए निकल आया, घर में कोई नहीं था, मम्मी पापा कुछ दिनों के लिए बाहर गए हुऐ थे, मैं आकर बस बिस्तर पर लेट गया, मेरा बदन बुखार से तपने लगा।

मुझे होश आया तोह मैं शर्मिंदगी महसूस करने लगा, सुधा मुझे साफ कर रही थी, मेरे गिले कपड़ों को बदल रहीं थी, कब बेहोशी के आलम में मुझसे बिस्तर गिला हो गया मुझे कुछ याद नहीं था।

सुधा के चेहरे पर कोई घृणा के भाव नहीं थे अपितु उसकी आँखों में मैं चिंता, उदासी देख पा रहा था, मैं जैसे ही उठने लगा सुधा ने मुझे अपने हाथ का सहारा देते हुऐ मदद की।

इतने में ही डॉक्टर भी आ गए,

जाँच में डेंगू निकला।

अगले कुछ दिन बड़े भारी निकलें, लेकिन सुधा एक परछाई की तरह मेरे साथ रही, उसने ऑफिस से छुट्टी लेली थी।

 सुधा मुझमें इतना खोइ हुई थी की उसको अपना कुछ होश ही नहीं था।

वह मेरी सेवा करती, मैं बस टकटकी लगाए देखता रहता,

 उसके बिखरे बाल, उसके सिलवटों से भरे कपड़े, मुझे उसकी तरफ और आकर्षित करते,

लेकिन इस आकर्षण में वासना का लेशमात्र भी नहीं था।

कभी पहले किसी के लिए ऐसा महसूस ही नहीं किया था।

एक औरत अपने पति में एक हमसफर, प्रेमी, पिता और दोस्त पा सकती है लेकिन क्या एक आदमी अपनी पत्नी में एक प्रेमिका, साथी, हमसफर दोस्त समय आने पर माँ , बिस्तर पर मेनका देख पाता है शायद नहीं।

पुरुष का प्यार एक मृग तृष्णा की तरह है इसी लिए ज्यादातर पुरुष एक स्त्री को पुण्यता समर्पित नहीं हो पाते।

पर मुझे इस मृग तृष्णा से बाहर निकलना था, मुझे मेरी सुधा में ही इन सब रूपों को ढूंढ़ना था।

 मैं जानता था यह आसान नहीं होने वाला, लेकिन कोशिश करना मेरे हाथ में था और वह करने का मैंने ठान लिया था।

दोस्तों यह सफर रोमांचक होने वाला था, रिश्ते की डोर में तोह हम पहले ही बंध चूके थे, मुझे ही समझने में देर हुई।

लेकिन अब इस डोर को अपनी मोहब्बत से मजबूत बनाना था, खुद को उसके काबिल बनाना था और बस अब उसके प्यार में मुझको भी सब भूल जाना था।

मैं जैसे जैसे ठीक हो रहा था, सुधा फिर से अपने में सिमटने लगी थी।

ऑफिस जाना, घर आकर माँ का काम में हाथ बंटाना और कमरे में बिस्तर में सिमट जाना।

लेकिन मैंने खुद से वादा किया था अब हम एक दूसरे के नजदीक आने से पहले दिलों से नजदीक आएंगे।

जोह मेरे लिए मुश्किल जरूर था लेकिन नामुमकिन नहीं।

मैं सुधा से बातें करने के उसे अपने पास बिठाने के बहाने ढूंढ़ने लगा, कभी ऑफिस के किसी काम को लेकर बात करना, कभी घर के बारे में।

  धीरे धीरे बातों का दायरा बढ़ने लगा, वह घर ऑफिस के दायरों से निकल कर हम पर, हमारी पसंद, नापसंद, हमारे बचपन और ना जाने क्या क्या पर आने लगी, हम दोनों ही एक दूसरे से खुलने लगे।

कमरा हम दोनों के हंसने, गुनगुनाने, कभी किसी विषय को लेकर चलती बहस से महकने लगा।

मैं और सुधा एक दूसरे के बिल्कुल नये रूपों से रूबरू हो रहे थे,

जिनसे हम अभी तक बेखबर थे।

कभी कभी बातें करते एक दूसरे की नजरें टकरा जाती तोह सुधा एक दम शरमा जाती,

जोह सुकून उस सम्पूर्ण समर्पण में मैं कभी नहीं पा सका, उससे ज्यादा सुकून, आनंद वह अचानक से एक दूसरे से अनायास टकरा जाना, हाथों का छू जाना उसमें पा रहा था।

सुधा के चेहरे पर भी मैं साफ साफ वह रौनक वह रोमांच महसूस कर पा रहा था।

उसका मुझसे शरमाना, मुझे बात बात में छेड़ना, मेरा ध्यान रखना और ना जाने कितने ही ऐसे पल, शायद इसी को प्यार में पड़ना कहते हैं।

 हम दुनिया से बेखबर अपनी ही दुनिया में जी रहे थे,

जिस निर्भय की रातें रोशन होती थी किसी को अपने ख्वाबों में बे आबरू करके,

उस निर्भय को अब सुधा का साथ इतना भाने लगा था, की कभी कभी होश ही ना रहती और रात गुजर जाती और हम फिर भी तन्मयता से एक दूसरे की बातों में मगन होते।

फासले घटने लगे थे, उस रोज सुधा ना जाने कब मुझसे बात करते करते मेरी गोद में सर रख कर इत्मीनान से सो गई, जैसे कोई बच्चा सब डर भूल कर आश्वासत होकर चैन की नींद लेता है अपने माता पिता की गोद मे।

शायद उसका विश्वास मुझ पर आ रहा था और मुझे भी उस विश्वास को बरकरार रखना था, सोचते सोचते कब मैं भी नींद के आगोश में चला गया सुबह उठे तोह हम दोनों एक दूसरे की बाँहों में थे,

वह सकपका के उठते हुऐ बोलीं

 “रात कब नींद आ गई पता नहीं चला”

और बिस्तर समेटने लगी।

 सुधा को कुछ दिन के लिए उसके घर जाना था,

मन तोह कर रहा था उसको बोलूं के ना जाए लेकिन शादी के बाद वह पहली बार अपने घर कुछ दिन रहने जा रहीं थी, बोलता भी तोह क्या।

वह बहुत खुश थी, पर उसको देख कर मैं खुश नहीं था, अरे अरे यहां मुझे गलत ना समझिये,

मुझे उससे प्यार हो गया था इतना प्यार की उसके जाने की सोच ही मुझे पागल किये जा रहीं थी।

उसपर उसके चेहरे पर कोई शिकन नहीं मुझसे बिछड़ने की, बल्कि वह खुश है तोह बस वह मुझे अच्छा नहीं लग रहा था।

रात को सुधा के बिना सब अधूरा अधूरा लग रहा था, नींद भी आने का नाम ही नहीं ले रहीं थी।

 देर रात तक काम करता रहा और ना जाने कब आँख लग गई, सुबह ऑफिस निकलते वक़्त भी बस सुधा ही दिमाग़ में थी, ऑफिस में बहुत देर तक काम करता रहा और देर रात ही घर लोटा।

पर जैसे ही मैं कमरे में दाखिल हुआ सुधा मुझसे लिपट गई, मैं उसे देख कर हैरान रह गया इससे पहले की मैं कुछ बोलता सुधा के लब मेरे लबों पर थे, मैंने भी उसे अपनी बाँहों के घेरे में ले लिया।

मुझे भी तोह इसी दिन का इंतजार था जब हमारे तन के साथ मन का मिलन भी होगा,

और आज वह दिन आ गया था,

आज सुधा पूरी तरह मेरी हो चुकी थी और मैं उसका।

जिंदगी बहुत अच्छी गुजर रहीं थी, ऐसा समय जब मेरे भीतर और बाहय मन में बस एक इंसान की तस्वीर थी और वह सुधा थी।

सुधा माँ बनने वाली थी सब बहुत खुश थे, अपनी कहूँ तोह मैं बहुत दिन तक समझ ही नहीं पाया अपनी मनोस्थिति को,

शायद मैं तैयार नहीं था इस जिम्मेदारी के लिए या मुझे सुधा और मेरे बीच मैं कोई चाहिये ही नहीं था।

घर में माहौल बदल रहा था, सब बातें आने वाले बच्चे और ऐसे समय में सुधा की देखभाल कैसे करनी है उसी पर सिमट जाती।

 अमित मालती इस बार आये तोह भी बस बच्चे की बाते होती रही, मालती ने काफी देर सुधा से बात की और उसको बहुत सी हिदायतें दी आखिर वह gynaecologist जोह थी।

मम्मी पापा उनसे भी परिवार बढ़ाने की अपेक्षा कर रहे थे, लेकिन अमित से पता लगा अभी वह कुछ और समय लेना चाहते है।

सुधा में मानसिक, शारीरिक बदलाव आ रहे थे, वह घंटों बातें करना, हँसीं मज़ाक करना,करियर को लेकर बातें करना सब बदलता जा रहा था।

उसको जैसे मेरे नजदीक आने से घबराहट होने लगी, जहाँ मेरा मन हम दोनों के एक होने के लिए मचलता सुधा कोई ना कोई बहाना बनाने लगी।

मैं कोशिश करता हम फिर से वहीं हो जाएं वहीं मौज मस्ती, वहीं बातें, वही एक दूसरे का साथ और ढेरों बातें,

लेकिन सुधा को तोह अब इनमें कोई रुचि बची ही नहीं थी, जोह सुधा गुस्सा करना ही नहीं जानती थी बात बात मैं खीज जाना, आँसू बहाना, और खुश है तोह उस आने वाले मेहमान कि बातें।

मेरा दम घुटने लगा था घर में, मुझे कोफ्त होने लगी बच्चे का नाम सुन कर ही।

मेरा ज्यादातर समय ऑफिस में निकलने लगा।

मुझे नहीं पता कैसे उसका वह समय बिता, उसकी दवाइयां, उसका खाना पीना, उसके मन कि हलचल।

बस मुझे तोह जोह उसमें शारीरिक बदलाव हो रहे थे वह दिख रहे थे और घिन सी आने लगी थी इन बदलावों से।

मैं फिर से उन ख्वाबों के गर्त में गिरने लगा जिन ख्वाबों का विधाता मैं था, जहाँ सिर्फ मेरी मर्जी चलती थी, जोह मुझे जमीनी जिंदगी कि हकीकत का सामना करने से बचाते थे।

मैं वह स्वार्थी,वह भयभीत इंसान था जिसे रिश्तों के सारे हक तोह चाहिये थे लेकिन जिम्मेदारी से सरोकार नहीं था।

सुधा कि डिलीवरी का समय नजदीक आ रहा था, डॉक्टर के हिसाब से जुड़वा बच्चे थे।

सुधा के लिए ऑफिस जाना मुश्किल होने लगा था इसलिए उसने समय से पहले हि छुट्टी लेली थी।

बहुत बार जब उसको देखता छोटी छोटी चीज़ों को करने के लिए भी वह संघर्ष कर रहीं होती थी, डिलीवरी के आख़िरी दिनों में उसको उठना बैठना भी मुश्किल हो चूका था लेकिन ना जाने मैंने उसको किस बात का अपराधी मान लिया था, मैं इतना निष्ठुर हो गया था कि मैं देख कर भी अनदेखा कर देता था उसे।

लेकिन सुधा के चेहरे पर ना कोई शिकन ना कोई शिकायत अल्बता ऐसा महसूस होता कि जैसे वह अपने आप को अपराधी महसूस करती , जब वह अपने दैनिक कामों को ढंग से नहीं निबटा पाती थी।

हम दोनों को भगवान ने बहुत हि अलग बनाया था, एक वह थी जोह सब संभालते हुऐ भी शर्मिंदगी महसूस करती थी और एक तरफ मैं था जिसे ना कोई जिम्मेदारी का अहसास ना हि कोई शर्मिंदगी अपितु बेमतलब का अहंकार, नाराजगी।

आखिर डिलीवरी का दिन भी आ गया,

देर रात सुधा को हॉस्पिटल लाना पढ़ा वह दर्द से बेहाल थी, उस दिन उसकी वह हालत देख कर मैं बहुत घबरा गया, कुछ समझ हि नहीं आया क्या करुँ,वोह तोह अमित मालती पहले हि आ चूके थे उन्होंने हि सब संभाला।

सुधा को अंदर ले जाया जा रहा था उसकी हालत बहुत ख़राब थी लेकिन उसकी कातर नजरें उस दर्द बेचैनी में बस मुझे ढूंढ रहीं थी, मैंने उसका हाथ थामा और उसको दिलासा देने लगा तभी वह लोग सुधा को अंदर ले गए।

उस एक पल ने मुझे अहसास दिला दिया था सुधा मेरे लिए क्या मायने रखती थी,

नर्स मुझसे सिग्नेचर ले रहीं थी अगर आपरेशन करना पड़े तोह उसकी जिम्मेदारी कि और मेरे हाथ कांप रहें थे कैसी जिम्मेदारी? क्यों कुछ होगा उसको?

अमित ने मेरे कंधे पर हाथ रखते हुऐ बोला कुछ नहीं होगा, यह सिर्फ औपचारिकता है, घबराने कि जरूरत नहीं।

उसे अंदर गए काफी समय हो गया था, समय था कि कट हि नहीं रहा था।

 इंसान कि फितरत भी अजीब है जब आपके कोई इतने पास है, तब आपको अहसास ही नहीं होता उनके वजूद का, लेकिन उनके दूर जानें का भय आपके वजूद को ही जिझोड़ के रख देता है।

क्यों समय रहते नहीं चेतते हम।

आज अगर सुधा को कुछ हो गया?

हैरानी इस बात कि भी थी, कि मुझे तब तक आने वाले बच्चों के लिए कोई अहसास, कोई उत्साह या चिंता नहीं थी।

तभी माँ कि आवाज से मैं अपने सोच से बाहर निकला

“ निर्भय 2,2 लक्ष्मी आई है घर में “

मैंने जैसे यह तोह सुना हि ना हो

“मम्मी सुधा कैसी है?”

माँ ने कहा

“ वह अभी बेहोश है, 3,4 घंटे तक हि होश आएगा लेकिन वह ठीक है “

माँ ने हि कहा अपनी बच्चियों को देख तोह ले, पकड़

 और माँ ने मेरे हाथों में मेरी दोनों बेटियों को थमा दिया।

मैंने कांपते हाथों से उन्हें गोद लिया।

जिंदगी में पहली बार इतने छोटे बच्चों को गोद मैं पकड़ा था।

और वह भी मेरे और सुधा के बच्चे।

मैं उन्हें बस अपलक देखता ही जा रहा था,

मुझे याद नहीं इससे पहले मैं कब आखिरी बार रोया था, लेकिन आज ना जाने कब मेरी आँखों से आँसू बहने लगे।

घर के सब लोग उनकी एक झलक के लिए बेताब थे और बार बार मुझे आवाज दे रहे थे कि हमें भी गोद में लेने दो।

मेरे हाथ अभी भी कांप रहे थे, अमित ने मेरे हाथों के नीचे हाथ रखकर मेरी आँखों में झांकते हुऐ बोला

“बधाई हो निर्भय, घर में रौनक आ गई, चाहे तु इनका पापा है लेकिन हम सब का इन पर बराबरी का हक होगा,

ला दे मुझे मुझसे भी तोह मिल लें यह।

 मैंने दोनों का माथा चुम लिया और फिर आराम से उनको अमित को दिया।

अमित ने मालती को बच्चों को सँभालते हुऐ मुझे कस कर गले से लगा लिया, मेरी आँखों से आँसू टप टप गिरने लगे।

अमित मालती को बोला “ हम आते है “

यह बोल कर वह मेरा हाथ पकड़ कर बाहर आ गया।

घर दूर नहीं था अमित ने कार स्टार्ट करते हुऐ बोला

“ घर होकर आते हैं “

मैंने कुछ नहीं कहा, रास्ते में भी हम चुप ही रहे।

घर पहुँचते ही मैं अमित के गले लग गया और फुट फुट के रोने लगा जैसे कोई बच्चा रोता है।

और उससे माफी मांगने लगा

“मुझे माफ कर दे अमित, मुझे मेरी हर गलती के लिए माफ कर दे।

मैं काफी समय से तुझसे अपने किये कि माफी मांगना चाहता हूँ,

बताना चाहता हुँ, उस दिन क्या हुआ था।

लेकिन तेरा सामना करने से डरता था, मुझे माफ कर दे यार”

मेरे गले लगे लगे ही अमित बोला

“ ओय भूल जा वह सब, जोह हो गया सो हो गया।

मैं तुझ से नाराज नहीं, देख आज इतना खुशी का मौका है और तु रो रहा है “

और उसने मुझे सोफे पर बिठा दिया

मैं अमित का हाथ पकड़ के बोला

“ अमित प्लीज आज बोलने दे बहुत बोझ है मन पर, बड़ी मुश्किल से हिम्मत कि है,

मेरी मदद करेगा ना?

मुझे सुधरना है मेरे अपनों के लिए, देख आज तक मैं सब गलत हि करता आया हूँ, लेकिन अब मुझे सब सही करना है, अपनी बेटियों कि नजरों में उनका हीरो बनना है।“

अमित मेरे और नजदीक आकर बैठ गया और मुझे पानी पिलाया।

मैं बोला

“ मुझे नहीं पता था तु सपना को पसंद करता है, और मैं सपना को क्या किसी को भी पसंद नहीं करता था।

 उस दिन सपना मेरी तबीयत सही ना देख कर मेरे लिए चाय बनाने आईं थी मैंने उसे मना भी किया लेकिन वह मानी नहीं,

 मैं उसको देख कर बहक गया और उससे पहले कि मैं कुछ गलत करता सपना ने मुझे चाँटा मारकर मेरे होश ठिकाने लगा दिए।

वह उस दिन इसी लिए वहां से ऐसे तेजी से निकली थी।

मैंने तेरी और सपना कि बातें भी सुन लीं थी बहुत मन किया कि तेरे पास आकर सब कह दूँ, लेकिन डर गया था बहुत।

अमित ने कहा “ कोई बात नहीं अब भूल जा सब। “

मैं फिर बोला “अमित बोलने दे यार बहुत कुछ है मन में, मुझे तेरी मदद कि जरूरत है,

तुझे पता है मैं कितना नीच हूँ, मैं दिन रात बस किसी ना किसी के सपने लेते रहता हूँ।

उस दिन सपना के साथ भी वह हिमाकत इसी लिए हुई,

बचपन से बस यहीं तोह करता आया हूँ मैं,

पर यार मैं जानबूझकर कर ऐसा नहीं करता,

सुधा के लिए भी मैंने कोई फर्ज नहीं निभाया, बल्कि जब मुझे उसको संभालना चाहिए था, मैं किसी और के सपने लें रहा होता था, और उसपर बिना मतलब का गुस्सा निकालता था...............................................”

अमित मुझे ध्यान से सुन रहा था।

आज मैंने अपने अंदर के सालों से चल रहे अंतरदवंद को उसके सामने रख दिया था।

आज मेरे लिए यह मायने नहीं रखता था अमित मेरे बारे मे क्या सोचेगा, उसकी नजरों में मैं गिर तोह नहीं जाऊंगा?

जोह मायने रखता था अपने सच को स्वीकार करना, मन पर जोह बोझ सालों से था उसे अब एक और मिनट नहीं झेल पा रहा था मैं।

भगवान ने भी शायद मुझ जैसे इंसान को इन नन्ही परियों का पिता बहुत सोच कर ही बनाया था।

मेरे अंदर जैसे आग सी लगी थी, जोह मैं झेल नहीं पा रहा था, आज अपनी बेटियों को गोद मे लेते ही जैसे सब बदल गया।

मेरा अंतर्मन जैसे चीख चीख के मुझसे पूछ रहा था,

मेरे जैसे इंसान के साये में क्या वह महफूज रहेंगी?

 मैं उनकी जिंदगी का हिस्सा बनने के लायक हूँ भी या नहीं?

मैं अमित से लिपट कर चिल्लाने लगा अमित प्लीज मुझे इन सब से निकलने में मदद कर।

मुझे सब सही करना है, मुझे अच्छा जिम्मेदार इंसान बनना है, मुझे तेरे जैसा बनना है यार, मुझे तेरे जैसे बनना है।

अमित ने मुझे गले से लगा लिया और मेरे बालों को सहलाते हुऐ बोलना शुरू किया

“ हाँ मैं सपना को बहुत पसंद करता था, उससे शादी के सपने देखता था।

 उसके साथ मैं भी अपनी ख्वाबों की दुनिया में ना जाने कितना आगे निकल गया था।

सच कहूँ मेरे डॉक्टर बनने में सपना का भी बहुत योगदान है “

मैंने हैरानी से अमित को देखा

अमित हंसते हुऐ बोला

“ अरे यार फीस तोह पापा ने ही दी थी, लेकिन तब सपना के प्यार का भुत दिमाग़ पर इतना सवार था की बस लगता था कुछ बड़ा करना है की अंकल आंटी शादी से इनकार ही ना कर पाए।

तोह सपना के चक्कर में ही बहुत मेहनत हो गई मेरी “

लेकिन यार तब अकल नहीं थी उसको पसंद करता था मुझे उसको पहले ही बोल देना चाहिए था,

अब भूल जा इन सब बातों को,ना ही अपने मन में कोई मलाल रख। मैं मालती के साथ बहुत खुश हूँ।

लेकिन मैं तेरे से इस बात पर नाराज जरूर हूँ की जब तु इतना परेशान था तोह कभी तोह मुझे बोलता,

थोड़ा विश्वास करता मुझ पर, बचपन में ना सही लेकिन बड़े होने पर तोह कर लेता।

चल भाई मान कर ना भी बात करता लेकिन साले मैं एक डॉक्टर भी हूँ, यह क्यों भूल गया तू?

मैंने एक दम चौंक के उसकी तरफ देखा और पूछा

“ तू अब हर जगह अपनी डॉक्टरी की धौन्स मारेगा? “

तोह अमित संजिंदगी से बोला

“ कभी तूने OCD सुना है?”

जी हाँ ‘obsessive compulsive disorder’

हो सकता है आपमें से कुछ ने या बहुत लोगों ने इसका नाम सुना हो लेकिन मैंने उस दिन अमित के मुंह से पहली बार इस का नाम सुना।

मैंने ना में गर्दन हिलाई।

अमित ने कहा

मैं यकीन से तोह नहीं बोल सकता लेकिन जहाँ तक मैं तेरी बातों से समझ पा रहा हूँ, शायद तू इसी से गुजर रहा है।

जहाँ इंसान के दिमाग़ में बहुत से अनचाहे विचार आते हैं, जो कि उसके नैतिक मूल्यों से भिन्न हो सकते हैं, उनसे आने वाली बेचैनी से निजात पाने के लिए इंसान कुछ चीज़ें बार बार दोहराने लगता है, करने लगता है जिससे उसे लगता है की मुझे शांति मिलेगी जैसे हाथ धोना, दरवाजा बार बार बंद करना और भी बहुत कुछ हो सकता है।

 कुछ लोग किसी विशेष परिस्थिति से भागने लगते है “।

मैं एक दम चिल्लाया

 “ हाँ जब भी मेरे दिमाग़ में यह सब आने लगता है, मुझे ऐसा लगता है जैसे कि मैंने कुछ गलत किया है, मैं अपने कान खींचने लगता हूँ, और यह मुझे 2 पल कि तसल्ली देता है, लेकिन फिर मेरा मन मुझे उसी जंजाल में खींच लेता है “।

अमित बोला “इससे यह तोह समझ आ रहा है कि तुझे ocd ही है शायद ,

देख जितना मैं इसके बारे मैं जानता हूँ, इसका सबसे अच्छे से इलाज तू खुद ही कर सकता है, अपने डर भय का सामना करके।

लेकिन यह एक दिन का काम नहीं, अपनी लड़ाई लम्बी है, पर अपने को समस्या समझ आ गई है तोह निदान भी मिल जाएगा।

इसके लिए हमें किसी मनोंचिकित्सक के मार्गदर्शन में काम करना होगा।

लेकिन सबसे ज्यादा जरूरी तेरा खुद का मनोबल होगा।

और मैं तोह हूँ ही तेरे साथ”

“लेकिन अभी हमें जरूरी है सुधा के पास अस्पताल पहुंचना

घड़ी देख जरा”।

और हम लोग अस्पताल के लिए जल्दी निकले।

जब तक हम पहुंचे सुधा को होश आ गया था, मेरी सुधा कि आँखें इस हालत में भी मुझे ही ढूंढ रहीं थी जैसे।

मुझे देखते ही जैसे उसका चेहरा खिल गया, मैं फिर से अपने आंसू नहीं रोक पाया, और उसको बोला

“ सुधा वादा करता हूं, एक अच्छा पिता और पति बन कर दिखाऊंगा मैं।

पीछे जोह भी मैंने किया उसको बदल नहीं सकता, लेकिन आने वाले कल में मैं कोशिश करूँगा तुम्हें और हमारी बेटियों को शिकायत का मौका ना दूँ।

अभी तुमसे उम्मीद नहीं कर रहा तुम मुझ पर भरोसा करो, पर बस मुझसे प्यार करती रहना।

मैं अपनी बेटियों का हीरो बनूँगा।. “

सुधा इतने दर्द में भी मेरे आंसू पूछने की कोशिश करने लगी, मैंने उसको गले लगा लिया।

जी यही है मेरी कहानी,

 मेरी कोशिश जारी है अपने को एक बेहतर इंसान बनाने की और अपना वादा निभाने की।

उस दिन जैसे मेरा भी नया जन्म था।

यह नहीं कहूंगा कि कुछ जादू हुआ और सब सही हो गया।

कुछ भी आसान नहीं था , संघर्ष बहुत रहा अपने आप से, परिस्थितियों से, संघर्ष अभी भी जारी है,

लेकिन जोह नहीं हिला वह मेरा ना हारने का जज्बा, मेरे अपनों का साथ।

 अरे इनमें अगर मैं रिद्धि मैडम का नाम नहीं लूंगा तोह ज़्यादती होगी, मेरी मनोंचिकित्सक।

उनका धैर्य जब मैं घंटों उनसे बैठ कर एक ही बात को बार बार पूछता, दोहराता और वह उतने ही धैर्य से हर बार सुनती और मुझे समझाती।

अमित के लिए तोह शब्द कम पड़ जाएंगे, इस लिए बोलता ही नहीं हूं 😊।

अरे अमित से ध्यान आया कुछ बताना भूल गया था, वादा करता हूं बस इसके बाद कोई और उतार चढ़ाव नहीं होंगे कहानी में।

पिछले साल मैं और अमित परिवार के साथ मनाली घूमने गए हुऐ थे।

और वहां हमारे साथ कुछ अनोखा घटा।

मैं अमित लॉबी में बैठें बातें कर रहे थे की तभी नजरों के सामने से जाना पहचाना चेहरा निकला।

जी हाँ सही पहचाना आपने सपना,

जी हाँ वह सपना ही थी,

मैंने सपना को पीछे से आवाज दी

“ पहचाना सपना”

वह और उसके पति एक दम मुड़े।

हमारा यूँ टकरा जाना सबके लिए अप्रत्याशित ही था।

“ ओह तुम लोग और यहां “

सपना ने कहा

औपचारिक बातचीत के बाद वह वहां से चले गए।

अमित मुझ पर एकदम बरस पढ़ा

 “ क्या जरूरत थी तुझे आवाज मारने की?

क्यों बीती बातों को याद करना है?”

“अरे सामने दिखी तोह एक दम समझ नहीं आया,

अब तू भी भूल जा सब, मालती जैसा हीरा तेरी जिंदगी में है, और उस हीरे ने जोह तुझे इतने प्यारे प्यारे बेटे दिए”।

( ज़ी माफी चाहता हूँ, अपनी कहानी में अपने भतीजों को भूल ही गया मै)

उसको तोह बोल दिया था लेकिन मन मे हलचल सी थी,

और भगवान ने जैसे मेरी सुन ली हो,

सुबह मैं और अमित वैसे ही सैर के लिए निकले तभी लॉबी में सपना अकेले दिखी, सपना भी शायद सैर के लिए ही निकली थी।

वह होटल से जैसे ही बाहर निकली, मैं अमित को खिंचता हुआ उसके पीछे हो लिया।

सैर के लिए जा रहीं हो क्या, सपना?

मैंने पूछा

उसने हमारी तरफ देखा और हलका मुस्कराते हुऐ जवाब दिया

“ हाँ इनको अपनी नींद बहुत प्यारी है, बच्चे तोह वैसे ही नहीं मानते, तोह मैं अकेले ही आ गई “

हम भी, चलो साथ ही चलते हैं अगर तुम्हें कोई परेशानी ना हो?

मैंने कहा।

हम तीनों साथ चलने लगे

बातचीत की पहल मैंने ही की

“ सपना उस दिन के लिए मैं बहुत शर्मिंदा हूं, जानता हूं बहुत पहले माफी मांगनी चाहिए थी, लेकिन उस समय हिम्मत नहीं कर पाया और उसके बाद आज मौका मिला है,

हो सकें तोह प्लीज मुझे माफ कर दो, इतने सालों से मन पर भारी बोझ है।

सपना बोलीं

“ निर्भय भूल जाओ उन बातों को मैं भी भूल चुकी, कबका माफ़ कर चुकी तुम्हें।

अब मन पर बोझ मत रखो “

मुझे नहीं पता सपना ने माफ किया था या नहीं, लेकिन मैं माफी मांग कर अपने को काफी हल्का महसूस कर रहा था।

हम तीनों चले जा रहे थे इधर उधर की बातें करते तभी मैंने कहा

“ मैं बहुत थक गया हूं, तुम दोनों आगे होकर आओ तब तक यहां बेंच पर बैठता हूं मैं “।

वह कुछ और बोलते उससे पहले मैंने कहा

 “अब जाओ भी या तुम दोनों भी बुढे हो गए हो “

वह लोग आगे बढ़ गए।

मेरे मन में सुकून था ईश्वर ने मुझे एक मौका दिया गलती कि माफी मांगने का और उन दोनों को भी एक बार बात करने का।

कुछ देर में वह दोनों लोट के आये,

मुझे नहीं पता उनके बीच क्या बात हुई ना ही मैं जानना चाहता था, लेकिन दोनों के चेहरे पर सुकून नजर आ रहा था, वह हसतें बातें करते वापिस आ रहे थे।

असल जिंदगी में हर कहानी को closure मिलें या ना मिलें लेकिन हम तीनों की कहानियों को closure मिल चूका था।



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