फूफी
फूफी
फूफी अक्सर अपने जीवन के किस्से सुनाया करतीं लेकिन जब वो खामोश व मायूस होती तो कुछ न कुछ बड़बड़ाती रहतीं। आज फूफी पैर में महावर रचाए, माँग में सिंदूर ,अँखियों में काजर,माथे पर बिंदी,कानों में झुमके पहने व पैरों में पायल बाँधे ,सतरंगी साड़ी में सजी बैठी थीं। गाँव भर में जो भी देखता वही कहता- बुढ़िया पागल हो गई है और इतना कहकर आगे बढ़ जाता लेकिन मैं फूफी को काफी देर से देखे जा था । पास ही भौंकते कुत्तों की आवाज भी कान के परदों को चीरकर अंदर तक झनझना रही थी । मैं भी घर की छत से उतरकर फूफी के पीछे खड़ा हो गया तो फूफी गुनगुना रही थी-
दुल्हन बन सजाऔ री सखी
मैं भी जाऊँ ससुराल
हिलमिल गाऔ री सखी
मैं भी जाऊँ ससुराल।
फूफी गाए जा रही थी और आंखों से झरते आँसू फूफी के पैरों को धूल रहे थे । मैं आश्चर्यचकित था कि पचहत्तर साल की फूफी को हुआ क्या है? हालांकि बीते दिनों वे कभी चुनरी उतार फैंकती थी तो कभी बाल फैलाकर चबूतरे पर बैठ जाती और रास्ते से आने जाने वाले लोगों को गालियाँ बकती। आज समझ न आता था कि फूफी को हुआ क्या है? हम बच्चे इतना भर सुनते आए थे कि फूफी ने अपने जवानी के दिन अपने यहाँ न जीए थे वे सैंतीस की होते-होते घर लौटी थीं और जब लौटकर आयीं थी तो सुबह-शाम गाँजा घिसकर पीती ,रात-दिन भर हुक्के पर चिलम चढ़ी रहती और रात-रात भर गीत गुनगुनाती-
आज अँधेरी रात
बालम कब आऔगे
बुझी पड़ी है आग
बालम कब सुलगाओगे
यही गुनगुनाते-गुनगुनाते वह अचानक से हँसने तो कभी रोने लगती लेकिन कोई घर का कोई मर्द कुछ न कहता । दिन के उजाले के होते-होते फूफी की आँखें मुदती और अंधियारे के बढ़ने के साथ ही खुलती । जब खुलती तो वे छत पर चढ़ जाती और पूरे गाँव के मर्दो को गालियाँ बकती। मैंने खाट पर पड़े-पड़े अक्सर यह गालियाँ सुनी थी। जिनमें औरतों और लड़कियों का जिक्र कभी न होता सर्फ और सिर्फ मर्द होते ।
एक दिन देखा कि अंधेरे में हुक्के पर रखी चिलम सुलग रही है व फूफी के पास से धुँए का गुबार उठ रहा है जिसमें फूफी गुम हो गई है और फिर अचानक से उठकर फूफी ने जगमग करते जुगनू को पकड़कर जोरों से मसल दिया।
बचपन में फूफी को व उनकी हरकतों को देखकर में डरता और कभी पास जाने का साहस न जुटा पाता लेकिन आज फूफी के पास अनायास ही खिंचा चला गया था। उनकी खाल पर सतरंगी साड़ी लहरा रही थी ,साड़ी का घूघट श्वेत केशों व मुख को सहला रहा था । मैंने फूफी को आवाज लगाई तो फूफी ने पलट कर देखा और मुझे वहीं पास में खाट पर बिठा लिया। जब मैंने पूछा कि -फूफी क्या हुआ? तो उन्होंने कहा-आज मेरा ब्याह है,तू अकेला ही आया है।
मैं जानता रहा था कि फूफी कभी-कभी ठीक से बात भी करती रही है इसलिए कम ही डर था फूफी से । मैंने भी पूछ लिया कि - अब ब्याह कर रही हो जब उम्र ढल गई है ? तो वे कहने लगी - तो बेटा,लाला जानता ही क्या है ? जब में ग्यारह साल की थी मेरे बाप ने मुझे जमींदार को देकर अपने पुरखों की जमीन बचा ली और जमीदार ने साफ-साफ कह दिया था कि जब तक पाई-पाई का हिसाब न होगा तब तक यह हमारे घरों की सफाई और हमारे खेतों में काम करेगी। मैं जब जमीदार के यहाँ पहुँची तो मैं अकेली न थी। मेरे जैसी अनेक वहाँ उपस्थित थी। हम चिलचिलाती धूप में दिनभर काम करतीं व खाने के रूप में सिर्फ सूखी बासी झूठी रोटियाँ पाती। शाम को घर भर के काम करने के बाद एक अंधेरे बंद कमरे में एक-दूसरे से सटकर माँ-बाप को याद करते हुए ऑंसू बहाती लेकिन न कोई बाप आता न कोई माँ।
वक़्त के साथ हम सभी जवान हो रही थीं व देखते ही देखते चार साल गुजर गए थे। जमीदारों के यहाँ रहने वाले व आने वाले मेहमानों ,रिस्तेदारों के मूँह से लार टपकनी शुरू हो गई थी। हम चार ही सहेलियाँ थीं जिनके सीने वक़्त से पहले फूल चले थे,कंधे भारी हो चले थे,कद-काठी बढ़ चली थी। अब हम चारों को अलग-अलग कमरे मिले,चारों ही दुःखी थी क्योंकि अब अकेले रहना होता लेकिन उम्मीद थी कि कल को हम अपने माँ-बाप के पास जाएँगे हमारा विवाह होगा क्योंकि जमीदर के बेटे की ब्याह की धूमधाम पर हम चारों को ब्याह की रंगीन दुनिया दिखा गई थी। अब अक्सर हम चारों मिलती तो एक ही गीत गातीं-
चलौ री सखी,हिलमिल गाऔ
हमऊ जाएँ पीहर कूँ
पहरि हरी-2 चूड़ियाँ
पहरि सतरंगी चुनरिया।
लगाइ कजरा कारौ
पहरि बिछिया न्यारौ
हमऊ जाएँ सासुरे कूँ
चलौ री सखी,हिलमिली गाऔ।
चारों मिलकर बहुत देर तक गाती रहतीं और फिर काम पर लग जातीं। चटनी से सूखी रोटियों की आदत हो ली थी और कमरे में भी नींद आने लगी थी लेकिन कमरे में अंधेरा बहुत रहता। एक दिन अचानक दरवाजा खटका। मैंने पूछा - कौन ?
तो जमीदर था। मैंने दरवाजा खोल दिया तो हाथ में दिया लिए एक आदमी अंदर आया।जमीदार दरवाजे से ही लौट गया। उसने अंदर आते ही दीये को बुझा दिया और साँकल बन्द कर दी। वह मेरे बदन को छूने लगा ,कभी मेरे उभार छूता तो कभी मेरे गाल व होठों को,कभी मेरी कमर पर हाथ फिराता। मैं गुस्से में चिल्लाने लगती तो गालियाँ देते हुए कहता- साली,हरामजादी चुप बिल्कुल।
मैं जोरों से चीखती लेकिन कोई दरवाजा न खोलता। शरीर भी कमरे में भागते-भागते थका जा रहा था और आखिर में उसने मुझे पकड़ कर फर्श पर पटक ही लिया । मेरे कपड़े तार-तार कर दिए। मैं पूरी रात चीखती रही गालियाँ बकती रही लेकिन कोई न आया । मन में बार-बार आता कि मेरा ऐसा क्या दोष था कि गुजरना पड़ रहा था ऐसी पीड़ा से । वह तो सुबह उठकर चला गया लेकिन मैं न उठ सकी, दिन भर फर्श पर ही पड़ी रही। सूखी रोटियाँ मेरे कमरे में दरवाजे से ही सरका दी गयीं लेकिन मैंने उनको छुआ भी नहीं यही सोचकर कि यही रोटियाँ हैं जिन्होंने मुझे जवान कर दिया है। पूरे दिन रोती रही माँ-बाप को याद करती रही। जमीदर आया तो उसको भी कह दिया कि मुझे मेरे माँ-बाप के यहाँ भिजवा दे , वे मेरा ब्याह करेंगे।उसने कहा कि ब्याह की रस्में ही निभा यहाँ रहकर ,ब्याह के बाद जो होता है सब यहीं मिलेगा तुझे और फिर चलता बना।
मैं सोच में थी कि बीती रात जो गुजरी मेरा ब्याह हुआ था तो कभी ब्याह न करूँगी लेकिन जैसे- जैसे दिन गुजरते कोई न कोई कमरे में दीया लेकर दाखिल होता व झकझोरकर चला जाता । मैं भी लाचार थी कुछ कर भी नहीं पाती थी और जब-जब भागने का प्रयास करती तो पकड़ ली जाती। उन दिनों दरवाजे को खुला छोड़ दिया जाता और दिन-रात चहलकदमी होती रहती और मैं फर्श पर पड़ी बिलखती रहती।
एक दिन बाकी तीन सहेलियों से भी मिलना हुआ। उस दिन जमीदर का पूरा परिवार कहीं बाहर गया हुआ था ,तो हम चारों ने जाना कि चारों की हालत एक जैसी थी। मैं वापस अँधेरी कोठरी में लौटकर गाने लगी -
हारि चुकी हूँ
अब तौ पारि उतारौ
प्रभु! दुखियारी को दर्द से
अब तौ देऔ छुटकारौ
हे प्रभु! अब तौ पारि उतारौ।
जिस प्रभु को गालियाँ देती उसी से जीवन की भीख माँगती लेकिन न मर रही थी न जी पा रही थी। उम्र भी सैंतीस की हो चली थी कि अचानक माँ-बाप आ धमके । वे मुझे पहचान ही न सके थे और मैं भागकर उनसे गले लग गई थी लेकिन घर पहुँचकर उनसे कई साल बात न की थी। खाती-पीती और सोई रहती क्योंकि जान गई थी कि खेत की खातिर जमीदर के यहाँ गिरवी थी। जब-जब सोचती तो मर्दो से घृणा होती। इतना कहते-कहते फूफी खामोश हो गई थी। मैंने पूछा - आज क्यों दुल्हन बनी बैठी हो? तो बोली कि-कल एक से सुना था कि ब्याह होने पर महावर रचायी जाती है,काजर लगाया जाता है और अचानक से फूफी जोरों से हँसने लगी और बोली कि फिर पति के साथ एक ही बिस्तर पर सोया जाता है इतना कहते-कहते सच में खाट पर सो गई थी। फूफी ऐसी सोई थी कि घर भर के लोग जगाते रहे लेकिन फूफी न उठी।
