पारो और चारो!
पारो और चारो!
उस रात, बरसात जैसे रुकने का नाम ही नहीं ले रही थी। बिन मौसम के इस बरसात ने, रात की ठंडक को और बढ़ा दिया था। नवम्बर में भी कोई बरसात होती है?! दिवाली गुज़रे अभी एक सप्ताह भी नहीं हुआ था, की इस एकाएक अनपेक्षित बरसात ने सबको ठंड से कुड़कुड़ाने को मजबूर कर दिया था। रात के १० बज चुके थे और गोपाल को अभी क़रीब एक डेढ़ घंटे और पढ़ाई की औपचारिकता, या यूँ कहें तो नाटक, करना था। उसका ईर्ष्यालु मन कभी अपने मेज़ के साथ लगे हुए चारपाई पर छोटे भाई बहन को सोते निहारता, तो कभी उसका आशावान मन दीवार पर लगी घड़ी को घूरता, जो आज कुछ ज़्यादा ही धीरे चलती जान पड़ती थी। गौतम और गुड़िया भी अभी सोए नहीं थे, बल्कि एक रूसी लोककथा तो दूसरा क्रिकेट सम्राट के पन्ने पलट रहा था। गोपाल को लगता था जैसे वह संसार में सबसे दुर्भाग्यशाली लड़का है। उसकी कक्षा के दूसरे सहपाठी तो इतने अनुशासन में नहीं रहते, और उनके माता पिता भी पढ़ाई को लेकर इतने आतुर नहीं होते।शिवेंद्र के पिताजी तो उसके साथ कामिक्स पढ़ने और उसपर चर्चा करने में भी हिस्सा लेते थे। अभी गोपाल यह सब सोच ही रहा था कि बिजली चली गयी और उस क्षण उसकी ईश्वर पर आस्था में थोड़ी बढ़ोत्तरी हो गयी। अब तो पिताजी भी पढ़ने के लिए बाध्य नहीं कर सकते और वह भी गौतम और गुड़िया के साथ रज़ाई में घुसकर ख़ुसूर पुसुर कर सकता था। रज़ाई में घुस, वह अपने छोटे भाई और बहन को हमेशा की तरह अपनी स्वनिर्मित कहानी, जोकि किसी फ़िल्म की कहानी कह कर परोसा जाता, उसको सुनाने ही लगा था, कि उसका ध्यान बरामदे से आते कोलाहल पर पड़ा। माँ और पिताजी की आवाज़ तो स्पष्ट थी पर साथ ही किसी और की भी आवाज़ थी। गुड़िया ने बताया कि आज सुबह से ही पारो की तबियत ठीक नहीं थी और माँ लगातार अंगीठी जला कर उसकी मालिश करतीं या कुछ ना कुछ घरेलू उपचार करती रहीं थी। इतनी रात गए इस हलचल से तीनो व्यथित से हो गए और बरामदे की ओर भागे। वहाँ पहुँच कर पाया कि माँ और पिताजी दोनो ही पारो को सहला रहे थे, उनके चेहरे पर चिंता की लकीरें गहरी जान पड़ती थीं। गौतम ने धीरे से पूछा, “माँ,क्या हुआ पारो को, वह ठीक तो हो जाएगी ना?”। माँ ने बस अपने रुँधे स्वर से इतना ही कहा “आज ही दउ को ऐसे बरसना था”। उनके स्वर से अनिश्चितता ही अभिव्यक्त हो रही थी। इतने में पिता ने गोपाल से कहा, “जाकर बग़ल से यादव भइया को बुला लाओ, अगर सो गए हों तो भी जगा लाना उन्हें”। गोपाल और गौतम, दोनो भाई छतरी लेकर निकल पड़े इस आशा में की यादव भइया आकर कुछ ना कुछ करिश्मा कर ही देंगे और सब ठीक हो जाएगा। गोपाल तो अब वयस्क होने को था और सम्भावित ख़तरे को समझ सकता था पर गौतम और गुड़िया अभी भी छोटे थे और उनका कोमल बालमन अभी भी सुख दुःख को संसारिक व्यावहारिकता के चश्में से आँकने में असमर्थ था। बचपने की यही ख़ूबसूरती है, कि वह प्रायः जीवन के सकारात्मक पक्ष को ही समझता है। ख़ैर, घर आने के पश्चात माँ ने तीनों को कमरे के अंदर जाकर सोने के लिए भेज दिया। रात्रि का दूसरा पहर बीतने को था, तीनो भाई बहन कमरे में जा रज़ाई में तो घुस गए थे, पर नींद कहाँ आती। तीनो कान लगाए सुन रहे थे की बरामदे में क्या हो रहा है। बरसात की पड़ती बूँदों से उपजे शोर में कहाँ कुछ पता चलना था, पर आपस में ये फिर भी खुस फुस करते रहे देर रात तक और फिर पता नहीं कब बात करते करते सो गए।
सुबह गोपाल की नींद काफ़ी देर से खुली। उठा, तो सुबह के दिनचर्या के हलचल से तुरंत ज्ञात हो गया कि काफ़ी समय हो गया आज। गुड़िया और गौतम भी उठ चुके थे और बरामदे से उनकी आवाज़ वह सुन सकता था। आश्चर्यजनक परंतु सत्य, पिताजी, जो सुबह शीघ्र उठने के मामले में कदापि भी समझौता नहीं करते, और इतने में तो बवाल मचा चुके होते, वह भी आज धधक नहीं रहे थे। उनकी आवाज़ आ रही थी बैठक से, संभवतह किसी से फ़ोन पर बात कर रहे थे। गोपाल के मस्तिष्क में कल रात्रि की पारो की तबियत वाली बात कौंध सी ही गयी थी, की पिताजी के ज़ोर से हँसने की आवाज़ आयी और तुरंत मन आश्वस्त हो गया की सब ठीक है। उसी क्षण वह सरपट दौड़ पड़ा बरामदे की तरफ़, इस उत्सुकता में की पारो कैसी है। जाकर देखा, तो माँ गुड़िया और गौतम पहले से ही वहाँ विद्यमान थे, और पारो के टीन के छज्जे के नीचे उसकी सेवा में लीन थे। पारो बैठी हुई थी और माँ ने गोबर के उपलों की अंगीठी जला रखी थी, जिससे वहाँ पर्याप्त गरमी हो और शीत से निवारण हो सके। पारो का आवास तीन तरफ़ दीवार से, तो ऊपर से टिन के छज्जे से ढाका हुआ था। बरसात और शीत से बचाने के लिए पिताजी ने खुले हिस्से को जूट और प्लास्टिक के बोरों से ढकने का अर्ध प्रयास किया था। गोपाल ने जब पारो को देखने हेतु बोरे के एक हिस्से को हटाया, और जो देखा, उसने उसे इस बात का भान कराया कि आज की सुबह में एक अलग ही ओज थी। साथ लगे अमरूद के पेड़ और अन्य पौधों की हरियाली और हरी हो गयी थी, चिड़ियों की चहचहाट दिन के इस अतिरिक्त उजालेपन की गवाही दे रहे थे। सामने एक ह्रिष्ट पुष्ट, पर नन्ही सी बछिया पड़ी थी, जिसे पारो लगातार अपने जीभ से चाट रही थी, साथ ही गौतम भी लगातार उसके मस्तक को सहला कर अपना दुलार प्रकट कर रहा था। शायद उसने इससे सुंदर चीज़ आज तक देखी ही नहीं थी। पारो से भी कहीं ज़्यादा उजली और तेजमय, माथे पर सिंदूरी रंग की निशान, मानो अभी अभी संकट मोचन मंदिर से तिलक लगा आयी हो। सच कहें, तो साक्षात ईश्वर की दिव्यता से भरपूर सम्मोहन था उसमें, उसकी आँखें झील की तरह गहरी और निश्छल थीं, जिसमें प्रेम और स्नेह इतने सहज रूप से तरल पदार्थ की भाँति डबडबा रहे थे, मानो अभी सबको समा लेंगे उसमें। माँ ने बताया, कि गाय अपने बच्चों को जब चाटती हैं तो समझो वह उसकी मालिश कर रही है। आज का दिन, बस इस नए सदस्य के साथ खेलने, औरउसके लिए भाँति भाँति के इंतज़ाम करने में बीता, गौतम और गुड़िया का। वह पूरे चाव से भाग भाग के बस यही सब कर रहे थे। इसी बहाने वह आज स्कूल भी नहीं गए थे। गोपाल का भी पढ़ाई में कुछ ख़ास मन नहीं लग रहा था स्कूल में। अंतिम पिरीयड आते आते उसका मन उद्विग्न हो चला था।
वैसे तो माँ ने हर प्रकार से पारो के कमरे को बोरों से ढक और अंगीठी के द्वारा ठंड से बचाने का पूरा इंतज़ाम कर दिया था, लेकिन गौतम और गुड़िया ने कुछ और ही सोच रखा था। जब माँ और पिताजी सो गए तो यह दोनो बछिया को अपने कमरे में घसीट लाए और अपनी चारपायी से बाँध दिया। कुछ देर तक तो सब ठीक था, परंतु मध्यरात्रि होते होते पारो और बछिया दोनो ही व्याकुल हो बाँ बाँ करने लगीं और घर में सब जग गए। माँ और पिताजी दोनो ही दौड़ आए हमारे कमरे में और जब उन्होंने यह दृश्य देखा तो क्रोधित होने के बजाए वह दोनो ठहाका मार हँस पड़े। सुबह होने पर गुड़िया नींद से अकस्मात् ही उठी, थोड़ी विचलित सी जान पड़ती थी, और रुँधे स्वर से बोल पड़ी, “चारो कहाँ है”। उसने आज रात अपने स्वप्न में ही नामकरण कर दिया था शायद, और इस तरह परिवार को उनकी चारों मिल गयी थी।
चारों की स्मृतियों से अंतहकरण के भावनात्मक सतह पर स्पंदन हो चला था कि अचानक फूफाजी की कर्कश वाणी ने कानों में एक अलग ही स्पंदन किया।
“भईया जल्दी जल्दी चलिए , अभी ही दिन के दस बज गए हैं और बुआ का गाँव यहाँ बाज़ार से क़रीब २ किलोमीटर तो है ही, जिसे हमें पैदल ही मापना है। यहाँ बाज़ार से फिर ४:३० वाली बस भी पकड़नी है जो बनारस के लिए अंतिम बस है। वह छूटी तो फिर सीधे कल ही वापस जा सकेंगे हम”, गौतम ने बड़े भाई गोपाल से ज़ोर देते हुए कहा। सही भी कह रहा था वह, दोनो की यहाँ रुकने की कोई तैयारी नहीं थी, बचपन में तो ये अपने गाँव आते भी रहते थे यदा कदा, पर अब उनका पूरी तरह शहरीकरण हो चुका था और गाँव में एक रात बिताने में भी अक्षम थे। गोपाल ने अपने अनुज की बातों में स्वीकार्यता जताई और दोनो तेज़ी से पग भरने लगे। अभी कल संध्या में ही गोपाल छुट्टी ले बनारस पहुँचा था और सुबह सुबह ही उसे पिताजी ने भोपतपुर गाँव, जो की उनके बड़ी बुआ का ससुराल है, वहाँ रवाना कर दिया था। कहने को तो यह बनारस शहर से ५० किलोमीटर से ज़्यादा दूरी पर न होगा लेकिन सड़क व्यवस्था और रोडवेज़ बस की द्रुतगामी सेवाओं का असर है की इसमें भी २ घंटे लग ही जाते हैं। दरसल, ये दोनो भाई अपने पिता के अनुशासन में ऐसे पले बढ़े हैं कि आज तक किसी भी रिश्तेदार के यहाँ शायद ही कभी गए हों। रिश्तेदारी में आना जाना उनके पिता, ओंकार, को शुद्ध रूप से समय गँवाना लगता था। उनके अनुसार तो विद्यार्थी जीवन में जितना कम संसारिकता से वास्ता हो, उतना अच्छा। बस गर्मी की छुट्टियों में अपने दादा दादी के गाँव बाबतपुर जाने की अनुमति थी इनको। लेकिन इस बार इनकी माँ ने यह सुनिश्चित कर दिया था कि “गुड़िया के विवाह का निमंत्रण पत्र लेकर यही दोनो भाई जाएँगे भोपतपुर। जीजी कितना शिकायत करती हैं कि उनके बस यही दोनो भतीजे आज तक नहीं आए हैं उनके यहाँ। दो महीने बीते गोपाल की तो नौकरी भी लग गयी है, गौतम भी कॉलेज में पढ़ने लगा है, अब कोई कारण शेष नहीं है जो इनको जाने से रोके”।
“रामअवध पांडे का घर कहाँ पड़ेगा भैया?”, गौतम ने उसी पगडंडी से गुज़रते एक लड़के से पूछा, जो दो तीन गायों को हाँकते जा रहा था। उसने इशारे से बताया की “यही रास्ता पकड़े आप उस गाँव में पहुँच जाएँगे और घुसते ही उनका बड़ा सा खलिहान पड़ेगा। ना समझ आएगा तो किसी से भी पूछ लेंगे तो हर कोई आपको बता देगा”। गोपाल ने अनुमान लगाया और बोला, “लगता है आप भी उसी गाँव जा रहे हैं क्यूँकि और तो आस पास कोई दूसरा गंतव्य नहीं दिख रहा है इस रास्ते से”। उसने तपाक से जवाब दिया, “नहीं नहीं, मैं उस गाँव में नहीं जा रहा हूँ, मैं तो साथ में बायें लगे पशु मेले में जा रहा हूँ जो महीने की हर दूसरे सोमवार लगता है। छोटेलाल कुशवाहा की पशु ट्रक निकलने में कुछ ही देर है, नहीं तो मैं आपको पांडेजी के घर पहुँचा देता”। गोपाल ने तुरंत पूछा, “ये कुश्वाहा वही ना जो इस क्षेत्र से विधायक है?” उसने जैसे यह नाम हाल फ़िलहाल में ही कहीं देखा सुना था। “हाँ वही” लड़के ने जवाब दिया। “आप अपने गायों को क्यूँ बेच रहे हैं?”, गोपाल ने उत्सुकतावस पूछ लिया, क्यूँकि उसके मस्तिष्क में तो यही अवधारणा थी की गाँवों में तो ऐसा कोई कारण नहीं होना चाहिए की किसी को अपने पशुओं को त्याग करना पड़े। लड़के ने जवाब दिया, “तो क्या करें भैया, मेरे घर में मैं ही घर पर बचा था और अब मेरी भी बम्बई में नौकरी लग गयी है, घर पर माँ बाऊजी की अब पहले जैसी हालत नहीं है की वह पशुओं की देख भाल कर सकें। अब ये दूध भी तो नहीं देती, कोई क्या करेगा इनका”। अच्छा चलिए भैया मुझे यहीं से मुड़ना है”, ऐसा कह कर वह नवयुवक चला गया। गोपाल जैसे उसे कुछ समझना चाहता हो, पर ना ही उसे इतना समय मिल सका और ना ही वह अपने आप में स्पष्ट था की क्या बोलेगा, बस एक टीस को हृदय में संजोये चुप रह गया। तभी गौतम ने कहा, “हम लोगों ने भी तो पारो और चारो को ऐसे ही कारण से बाबतपुर गाँव भेज दिया था दादी के यहाँ, लिब्बन के सहारे”। गौतम ने ऐसा बोला ही था की गोपाल के स्मृति पटल पर वो दिन जैसे बिजली की तरह कौंध गया हो। मन के वह सारे विचार, जो अभिव्यक्त ना किए जाने की वजह से कोई मूर्त रूप ना पा सके थे, अब गोपाल के मन में धीरे धीरे प्रकाशित हो रहे थे।
हॉस्टल के फ़ोन को गार्ड ने गोपाल को थमाया और हमेशा की तरह अपना कर्तव्य निभाते हुए कहा, “जल्दी कर लेना बात भैया और लोग क़तार में हैं”। हॉस्टल के फोन पर यह शायद पहली बार फोन आया था गोपाल के लिए, तो उसका चिंतित होना स्वाभाविक था। बहरहाल, समाचार भी ऐसा ही निकला, माँ को थोड़ी ज़्यादा चोट आ गयी थी, पारो के चोट पर मलहम लेपते समय उसने दुलत्ती मार दी, जिससे माँ के घुटने में मोच आ गयी थी। इस बार तो गोपाल ने निर्णय कर लिया, पारो को गाँव पहुँचा ही देना है। उसी शाम वह बनारस के लिए प्रस्थान कर गया। घर पहुँच वह सीधे माँ के कमरे में गया, जहाँ गुड़िया माँ के घुटने पर हल्दी प्याज़ का लेप कर रही थी। माँ जानती थी कि गोपाल क्या बोलने वाला है, क्यूँकि ऐसा पहली बार नहीं हो रहा था। पिछली बार जब वह घर आया था, तब भी बात छेड़ी थी उसने पारो को गाँव भेजने की। इसलिए इससे पहले की वह कुछ बोलता माँ ही फूट पड़ी, “क्यूँ तुम सब मेरे पारो को हमेशा यहाँ से दूर भेजने की बात करते रहते हो, जो कष्ट है मुझे है ना और मैं सब करने में समर्थ हूँ, मुझे कोई दिक़्क़त नहीं है। वहाँ गाँव में पराए लोग क्या देखभाल करेंगे। लिब्बन तो बस उसके साथ आम पशुओं की तरह ही बर्ताव करेगी”। गोपाल, माँ के ज़िद से कई बार झल्ला सा जाता, माँ तो जैसे कभी कुछ समझना ही नहीं चाहती। पिताजी को अपने कार्यालय से फ़ुर्सत नहीं होती, उनके लिए तो जैसे माँ का अस्तित्व बस घर सम्भालने के लिए ही है, और ऐसे में जब माँ अपने बारे में कुछ किसी से कहती भी ना हो, तो उनके स्वास्थ्य जैसे मूलभूत बातों को भी समय से कोई कैसे समझे। अगर गुड़िया घर पर उनके साथ ना हो तो हम किसी को कुछ भी पता ना चले उनके ज़रूरतों के बारे में। वह तो फिर भी दूर की बात है, अब जब की पता भी है की उन्हें उपचार की आवश्यकता है फिर भी वो अपना ही राग आलाप रहीं हैं। इतने में गौतम भी आ गया वहाँ और कुछ ही समय में भाँप गया की यहाँ बात पारो को गाँव भेजने के सिलसिले में हो रही है। उसने भी माँ की ही तरफ़दारी लेते हुए स्पष्ट रूप से इंकार कर दिया, पारो को गाँव भेजने से। वैसे गौतम का ऐसा कहना आश्चर्य की बात नहीं थी, वही एक ऐसा था माँ के बाद जो शुरू से ही पारो और चारो की सेवा पूरे मन से किया करता। जब भी घर होता तो पारो को भूँसा के साथ खरी चूनी को हौदे में सानने का काम वही करता। उसे बचपन से ही पारो और चारो से विशेष लगाव था। ऐसा नहीं था कि गोपाल और गुड़िया को लगाव नहीं था, वह तीनो ही चारो के साथ कितना खेले थे, दिन रात बस उसकी ही रट लगाए रखते। कालोनी के अन्य कुछ घरों में भी गाएँ थीं लेकिन पारो और चारो जैसी चमकती हुई, स्वस्थ और सुंदर किसी की नहीं थी। बस इसलिए क्यूँकि इस घर में सब जान छिड़कते थे उनपर। वह सदैव परिवार का हिस्सा थीं। लेकिन समय के साथ गोपाल और गुड़िया बड़े हो गए थे और उनके दिमाग़ दूसरे आयाम के साथ भी परिचित हो रहे थे। माँ की व्यस्तता और उनका स्वास्थ्य एक कारण तो था ही, इसके साथ ही कहीं ना कहीं वे स्कूल कॉलेज के अपने सहपाठियों के चमक धमक से भी प्रभावित हो रहे थे। घर पर गाय होना जैसे ग्रामीण और पिछड़े होने का प्रतीक हो, ऐसा लगने लगा था उनको। अभी पिछले साल गोपाल का एक मित्र पहली बार घर आया था और उसके सामने से माँ गोबर उठाते और सानते दिख गयीं, और उस मित्र के किसी बात से यह अभिव्यक्त हो गया की वह माँ को घर पर काम करने वाली समझ रहा था। यह बात उन तीनो के लिए ही सहन की सीमा से परे जा चुकी थी। गोपाल और गुड़िया ने तो उसी दिन सहमति बना ली थी, यूँ कहो तो प्रतिज्ञा ही कर ली थी कि पारो का रख रखाव अब यहाँ शहर में सम्भव नहीं है और उसे पिताजी की सहमति के बाद गाँव ही भेज देंगे। उस निश्चय को किए अब एक वर्ष बीत चला था। आज की इस घटना ने पुनः उसी मोड़ पर ला खड़ा किया था सबको और माँ को अंदाज़ा भी हो चला था कि शायद गोपाल इस बार नहीं मानेगा। हुआ भी यही, गोपाल ने माँ की ज़िद का जवाब एक बात में दे दिया। उसने, उनको अपने सर की क़सम दी और कहा, “मैं आज शाम की ही बस पकड़ कॉलेज के लिए वापस जा रहा हूँ , एक सप्ताह में पारो को वापस गाँव भेज दीजिए”। शाम की बस पकड़ वह जा चुका था, जबकि घर में आज माँ के गले से भोजन नहीं उतर पाया। गौतम ने भी चुपचाप चारो के पास बैठकर दो चार आँसू साझा किए।
बुआ के घर पहुँचने पर सभी ने बहुत सत्कार किया। बुआ तो जैसे फुले ना समाईं। उनके नेत्रों से अश्रु भी बहने लगे थे, बोल पड़ी “अब जाकर ओंकार को सुध पड़ी की अपनी बहन के यहाँ भतीजों को भेज दें, गाँव में लोग मेरे दूसरे सारे भतीजों से मिल चुके हैं, पहचान चुके हैं, बस एक तुम दोनो से ही किसी का साक्षात्कार नहीं हुआ है”। बाहर आम के पेड़ के नीचे चारपायी बिछाई गयी और दोनो भाइयों को उसपर बैठाकर, चारों ओर जैसे मधुमक्खी की तरह गाँव के चार पाँच लोग टूट पड़े थे। वैसे दोनो भाइयों को बड़ा हर्ष हुआ यह जानकर, की जिनसे वह जीवन में कभी भी नहीं मिले थे, और वो जो उनके बुआ के मात्र पड़ोसी ही थे, वह भी कितनी तत्परता के साथ कुशल क्षेम पूछ रहे थे। यही नहीं, बुआ स्वयं भतीजों से मिलने में व्यस्त थीं, तो पड़ोसियों ने जो वहीं बाहर ही थे, अपने घर से गन्ने का रस बनवाने के लिए कहलवा दिया था। अपरिचितों के लिए ऐसा स्नेह और निस्वार्थ प्रेम तो अकल्पनीय था दोनो भाइयों के लिए। बातों बातों में बुआ ने बताया की फूफाजी तो पास के एक गाँव गए हैं पशु चिकत्सक के यहाँ और आने में एक दो घंटे तो लग ही जाएँगे। गौतम के पूछने पर बुआ ने इशारा करते हुए थोड़ी दूर बंधी एक गाय को दिखाया और बताया की आज कल में ही वह गाय बियाने वाली है और चूँकि अब यह बूढ़ी हो चली है तो थोड़े कष्ट में है, यह सम्भवतह इसकी अंतिम ही होगी और इसके बाद उसको फूफाजी छोटेलाल कुश्वाहा के यहाँ मेले में बेच आएँगे, आजकल पुरानी गायों को उठा लेता है वह थोड़े दाम में। गौतम को लोगों से व्यावहारिकता निभाने में कोई दिलचस्पी नहीं थी, इसके लिए ही तो बड़े भाई होते हैं। वह सीधे उस गाय के पास पहुँच उसे सहलाने लगा। उसे ऐसा लगा जैसे बचपन में वह पारो को सहला रहा हो। कुछ ही देर में उसने गोपाल से कहा “भईया, यहाँ आइए, देखिए कितनी अच्छी गाय है, बिलकुल हमारे पारो जैसी”। कुछ देर में दोनो भाई वहाँ उस गाय के साथ लगे हुए थे। दोनो जी भर उसे सहला रहे थे और अपने पारो को याद कर रहे थे। कहते हैं कि पशुओं को भी प्रेम और दुलार की पहचान होती है और वह उसके लिए भूखे होते हैं। यह गाय भी दोनो भाइयों को बार बार एक एक करके चाट रही थी, और फिर कभी अपने मुख को इनके शरीर से रगड़ने की कोशिश कर रही थी। इन दोनो भाइयों को गाय गोरू के इस क्रिया का मतलब भली भाँति पता था, वह उस बंधी हुई गाभिन गाय के प्रेम की अभिव्यक्ति से अछूते ना रहे। “याद है गौतम वह रात जब पारो गाभिन थी और हम और तुम यादव भैया को बुलाने गए थे”, गोपाल अतीत के उन स्मृतीयों में अनायास ही चला गया और फिर दोनो भाई उस रात की याद साझा करने लगे। दोनो को आज पारो और चारो को याद कर बहुत संतोष हो रहा था। बीच में कभी कभी अपनी हताशा भी अभिव्यक्त करते कि काश वह वापस गाँव जाकर अपने पारो और चारो को वापस ला पाते, लेकिन यह उन्हें पता था की अब यह कदापि भी सम्भव नहीं था, बस यह सपने की बात रह गयी है। लेकिन दोनो ने यह ठान लिया कि इस बार वह दोनो यहाँ से घर वापस जाकर गुड़िया के विवाह से पहले ही गुड़िया को लेकर बाबतपुर जाएँगे और एक अंतिम बार पारो और चारो से ज़रूर मिलेंग़े। दोनो भाई पारो और चारो की स्मृतियों में डूबे ही थे की अचानक फूफाजी के तेज़ कर्कश वाणी ने इनका ध्यान भंग किया। “अरे बेटा गोपाल गौतम कैसे हो तुम दोनो?”, यह कहते कहते वह वहीं गाय के पास आ पहुँचे। दोनो ने उनके चरण स्पर्श किए और कुशल क्षेम पूछा। गौतम अभी भी उस गाय को सहला रहा था, जबकि गोपाल ज्येष्ठ होने के कर्तव्य को निभा रहा था, नीरस बातचीत करके। बातचीत चल ही रही थी की फूफाजी के मुख से ऐसी बात निकली की दोनो भाई अवाक् और शून्य से रह गए। फूफाजी ने कहा, “तुम दोनो तो वैसे बड़े तेज़ निकले, इतने वर्षों के बाद भी अपने गाय को पहचान गए”। क्षणिक अचेतन से उबरने के बाद गौतम ने पूछा “तो फिर चारो कहाँ है?” इसका जवाब वो देते इसके पहले गोपाल ने पूछा, “लेकिन फूफाजी, वह तो गाँव में आजी के यहाँ भेजी गयी थी बाबतपुर में, आपके यहाँ कैसे हो सकती है?”। फूफा ने फिर उन्हें बताया की “वह तो बाबतपुर भेजने के एक डेढ़ साल में ही, छोटे दादाजी के मृत्यु के बाद, यहाँ भोपतपुर भेज दी गयी थी और आजी बनारस चली गयीं थी, तुम लोगों के यहाँ”। गौतम का प्रश्न उन्हें समझ नहीं आया, क्यूँकि उन्हें तो इन गायों के नाम नहीं पता थे न। लेकिन उन्हें दूसरे ही क्षण समझ आ गया सब कुछ, और बोले “अरे बेटा तुम ग़लत समझ रहे हो, जिस बछिया को तुम पूछ रहे हो वह तो यही गाभिन गाय है, और जो गाय थी वह तो तीन साल बीत गए मार गयी, बूढ़ी हो गयी थी वह। उस साल गाभिन थी और प्रसव के दौरान ही प्राण छोड़ दिए उसने”। यह सब सुन दोनो भाइयों के पैरों तले से ज़मीन खिसक गयी, पूरे शरीर में झनझनाहट हो रही थी, आसमान गोल गोल चक्कर खा रहा हो ऐसा प्रतीत होता था। दोनो भाईयों ने एक दूसरे को देखा और फिर अपनी नन्हीं चारो से लिपट कर उसे चूमने लगे। चारो के आँखो से भी अश्रु धारा जैसे रुकने का नाम नहीं ले रही थी। अब समझ में आया की वह इतने देर से क्यूँ इतना दुलार कर रही थी दोनो को। तीनो घंटो तक एक दूसरे को पुचकारते और प्यार करते रहे।
बनारस के लिए निकलने का समय हो चला था और दोनो को अपने चारो को इस तरह छोड़कर जाने का बिलकुल मन नहीं था, परंतु जाना तो था ही। सबसे विदा ले वह घर से निकल पड़े थे, भारी मन से। रास्ते में दोनो बहुत देर तक बात भी नहीं कर रहे थे, जीवन में शायद पहली बार उन्होंने एक दूसरे को भावुक हो, रोते हुए देखा था। दोनो पहली बार एक साथ रो रहे थे और छिपाने का प्रयास भी नहीं कर रहे थे। बस में बैठने ही जा रहे थे कि अचानक गोपाल बोल पड़ा, “गौतम, वह जो कुश्वाहा के यहाँ बेचने की बात कर रही थी बुआ, मुझे याद आ गया मैंने कुछ दिन पहले ही एक समाचार रिपोर्ट में देखा था, की उसकी बस पर बजरंग दल वालों ने हमला कर दिया था, क्यूँकि वह गाँवों से पशुओं को लेकर ग़ाज़ियाबाद के शम्सुद्दीन के कसाईखाने में आपूर्ति करता है”। अबकि बार दोनो पूरी तरह आश्वस्त थे, वे बस से तुरंत उतर आए और फूफाजी के घर की तरफ़ दौड़ पड़े। अब अगर वह अपने चारो को घर ना ला सकेंगे तो जीवन पर धिक्कार होगा उनके।
अभी वह घर पर पहुचें भी ना थे, कि दूर से ही उन्हें चारो की बाँ बाँ करते गगन भेदी पुकार सुनाई पड़ रही थी। गौतम ने छोटे बच्चे की तरह बिलखते हुए कहा “भईया, अब हम चारो को कभी कहीं नहीं जाने देंगे, कुछ भी हो जाए”। गोपाल के मुख से भी निकल पड़ा “हाँ अब कभी नहीं”।
