Atul Tewari

Children Stories Drama

4.2  

Atul Tewari

Children Stories Drama

Nandu Sipahi -Atul Tewari

Nandu Sipahi -Atul Tewari

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650


"आ ले मेरा नन्दू सिपाही", सहसा मैं उस चिर-परिचित आवाज को सुन पीछे मुड़कर खड़ी हुई और उसको देखकर वहीं ठिठकर खड़ी रह गयी| रुंधे हुए गले से एक चीख सी निकली…

"ओ दिद्दी यह देख पगलेटी किसका बच्चा चुरा लायी है|"

अपनी माँ को मैं बचपन से दिद्दी ही बुलाती थी जिसकी भी एक कहानी है पर वह फिर कभी सुनाऊँगी|

मेरी उस असामान्य सी चीख से घबड़ाई हुई दिद्दी मेरे पास तुरंत ही लपकी,

"क्या हुआ विनीता?"

तो गरमपानी कि उस घाटी में रोड के किनारे हमारी ईजा (नानी) के घर के आँगन में खड़ी पगलेटी की तरफ मैंने ऊँगली से इशारा कर दिया|

अल्मोड़ा के कलमटिया ग्राम की काली मिट्टी से उसके केश जिनमे कहीं-कहीं पर भूरे रंग का छींटा जड़ से मुँह तक लगा हो| आज का समय होता तो कह सकती थी की उसने अपने केशों में स्ट्रीक्स करा रखा है| उसका खिलता हुआ गेहुआँ रंग जिस पर दो मचलती आँखें और तीखी नाक जिसको अगर एकाग्रता से देखो तो कुछ क्षणों बाद ऐसा महसूस होने लगता था कि आपकी आँखों के अंदर ही न आकर गड़ जाए| बांछें तो मैंने कभी सिमटती हुई उसकी देखी ही नहीं|

विधाता ने भी कितना घोर अन्याय किया था उसके साथ| जितनी उदारता रूप देने में की थी उतनी ही कृपणता सुध-बुध देने में भी की थी| फिर भी अगर कोई एक बार उसका रूप देख ले तो अनंतकाल तक आपके स्मृति कपाट पर उसका रूप अर्गला सा बंध जाए| सुराही सी गर्दन और उस पर नकली मगर बेजोड़ कारीगरी की टीप पहने हुए ऐसा प्रतीत होता था मानो कोई विवाहिता हो|

गर्दन के नीचे से उघड़ा हुआ यौवन उसकी वयस्कता को मुहर लगते हुए उस ग्राम के लौंडो-मोंडो की बंकिम-दृष्टि का भी पात्र बनता था| फिर भी उसकी शुष्क सुध की इतनी दाद तो देनी ही पड़ेगी कि काले रंग का लहँगा-चोली इतने सलीके से पहने रहती थी कि संभ्रांत परिवारों की बियूण चेलियों के पहनने-ओढ़ने का दर्प सूखा दे|

"पगलेटी" नाम रखा था गरमपानी के छोकरों ने; ईश्वर की इस बेजोड़ व अनन्य रचना का| पूरा गरमपानी उसे इस नाम से ही जानता था| भोर के साथ ही एकल-होलियार टोली-सी प्रत्येक आँगन में नाचने-गाने पहुँच जाती और लोग उसे कुछ खाने-पीने को दे देते| बस इतनी-सी ही दिनचर्या थी उसकी| आती कहाँ से थी और जाती कहाँ को थी यह तो केवल परमात्मा ही जानता था|

प्रत्येक वर्ष मई से जुलाई माह तक मैं अपनी बहनों और दिद्दी-नाना (पिता जी) के साथ अपनी ईजा के वहां गरमपानी में अपना ग्रीष्मावकाश बिताने जाती थी| और इसी क्रम में एक साल गरमपानी पहुंची तो मेरा सामना इस पगलेटी से हुआ|

रोड के किनारे बड़ा मैदान जैसा आँगन और आँगन के अंत में दो-मंजिला हमारी ईजा का घर| आँगन के समतल मंजिल में समाज-कल्याण का कार्यालय हुआ करता था| मेरी ईजा स्वयं समाज-कल्याण की अध्यक्षा थीं| ऊपर वाली मंजिल में हम लोग रहते थे| माफीदारों की परिपाटी का पालन करते हुए हमें घर पर ही रहना होता था और आम लोगों का संसर्ग पूर्णतः वर्जित था|

अपने नित्य समय पर पगलेटी का हमारे आँगन में पदार्पण हुआ| समाज-कल्याण कार्यालय में कार्यरत लोग उसको नित्य ही कुछ खाने-पीने को दे देते थे और ईजा भी ऊपर से कुछ खाने को भेजवा दिया करती उसके पास अपितु उसके ऊपर आने में कड़ाई से प्रतिबन्ध लगा था| आते ही उसने अपनी मीठी सी परन्तु असधी आवाज़ में गाना शुरू कर दिया - "रुमा झूमा रूम नाचली मेरी राधिका बाना...|" पगलेटी के गाने की आवाज़ सुनकर उत्सुकतावश मैं भी कमरे से निकलकर बाहर बरामदे में आ गयी| नाचते -नाचते उसने अपनी नज़रें उठा-कर ऊपर मेरी ओर देखा और फिक-से हँसी और बोली - "यो शहरी पुरिया (लड़की) कब ऐ छ? उत्तर की प्रतीक्षा किये बगैर उसने पुनः अपना गायन शुरू कर दिया| शायद इस बार का गाना मुझपर ही तंज था - "हिटो दीदी, ओये होये हिटो भुला, हिटवे बैणा, घास कटाणा पार डाना, हिटो दीदी...|" गाना सुनकर मैं कुछ क्षुब्ध और कुछ झेंप सी गयी| एक तो शहरी पुरिया बोली ऊपर से उससे उम्र में इतनी छोटी होने पर भी मुझे कहती है - दीदी घास काटने चलो| मन तो कर रहा था कि दराती लूँ और उसकी उदंड जिह्वा को काट दूँ| सारे कार्यालय के लोगों के सामने मेरा उपहास उड़ाया मुढरी ने|

तमतमाई हुई मैं अंदर आयी तो ईजा देखते ही समझ गयी|

"कुछ कह दिया क्या पगलेटी ने?" - ईजा ने पुछा

तब पहली बार मुझे उसके नाम का परिचय हुआ| ईजा ने बड़ा साम्य बैठाते हुए बताया की -

"जैसे वर्षा के पश्चात कुकुरमुत्ते उग आते हैं वैसे ही एक दिन शाम को वर्षा रुकने के बाद ये खाना मांगते हुए ना जाने कहाँ से आ धमकी| संध्या का समय था, खाली हाथ भी नहीं भगा सकती थी| पर खाना क्या दिया, बंदरिया की जैसे रोज़ यहीं को गिद गयी| क्या कर सकती हूँ| कभी-कभी सोचती हूँ कि जब परमात्मा ने दिया ही है खाने को तो थोड़ा सा अगर इसको भी दे दूँ तो कौन सी मरी विपन्नता आ जाएगी|

फिर अगले दिन से नित्य ही दोपहर में खाने के समय पर आकर धामा-चौकड़ी मचाती ओर ज़ोर-ज़ोर से - "... हिटवे बैणा, घास कटाणा...” गाती| समझती मैं भी थी कि मुझसे ही मुखातिब होने के लिए यह गीत गाया जा रहा है| पर कच्ची गोलियां तो मैंने भी नहीं खेली थी| जितनी देर वह गाती उतनी देर मैं बाहर बरामदे में ही नहीं जाती| कभी-कभी मुझसे मित्रता करने के उपक्रम में मेरे लिए "काफल" भी लाकर ऊपर भिजवाती थी यह कहकर कि शहरी पुरिया को खिला देना| फिर वह दिन भी आया कि उसके भिजवाए काफलों ने मीरा दिल जीत लिया और उस दिन भी मेरे लिए काफल अपने नित्य के सन्देश के साथ भिजवाए तो मैं अपने को रोक न पायी और चट उठकर उसका धन्यवाद करने बरामदे में आ गई|

"काफल के लिए थैंक यू" जैसी ही मैंने बोला उसको तो तुनकर वह बोली "ओ री शहरी पुरिया काफल नहीं "काफव" और किसी धृष्ट प्रेमी के प्रणय-निवेदन सा एक फ्लाइंग-किस मुझपर उड़ा दिया| उस उड़न-चुम्बन के साथ ही उड़कर नीचे कार्यालय में कार्यरत लोगों का अट्टहास भी मेरे मुँह पर आकर लगा| पगलेटी की इस उदंडता ने मेरे शरीर का पूरा रक्त क्षण-भर के लिए सूखा दिया था| अचेत-असुध ना जाने कितने क्षणो के लिए वहीं बरामदे में अड़ी रह गई थी| चैतन्य-प्राप्ति के उपरान्त लाज से ग्रसित दौड़कर बरामदे के कोने में स्थित अँधेरी कोठरी के भीतर जाकर दुबक गई|

तभी ज़ोर से मुँहजली चिल्लाई - "ओ रे ब्याव धुलैण जस काँ लुके र छ, पुरिया?"

सुनते ही मेरी समस्त लज्जा विलुप्त हो गई और मैं तो हँसते-हँसते बीढोल हो गई| शायद यहीं से हमारी मूक-मैत्री की नीव पड़ी थी|

अगले दिन से उसका सदैव की भाँति आना और मेरा अब से रोज़ खाना लेकर पगलेटी को दे आना| हमारी मूक-मैत्री में केवल भोजन के हस्तांतरण के समय एक क्षणिक मंद मुस्कान के आदान-प्रदान के अलावा और कुछ अधिक न था| पर प्रतिपल मेरा मन मुझे उकसाता बहुत था - पगलेटी से बात करने को, उसको जानने को, उसकी दिनचर्या का लेखा-जोखा लेने को|

सामाजिक व्यवस्थाओं का अनुसरण करना और गरु स्वर्ण-आभूषणों को धारण करना समान है| पर्व और त्योहारों पर धारण करने तक तो ठीक है परन्तु दैनिक जीवन में धारण करना सहज नहीं है| हमारे कुमाऊँ में भी लहँगा-पिछौड़ा और नाथ-मांगटीका विशेषतः वट-सावित्री व्रत व दीपावली पर ही धारण किया जाता है तो भला मैं अपने आप को कब तक रोक पाती अपनी नवीन मित्रासक्ति से|

एक दिन दिद्दी और ईजा हमारे किसी परिचित के वहां गए हुए थे और उसी बीच हमारी महारानी (पगलेटी) भी आ धमकी| उसके प्रथम स्वर - "हिटो दीदी..." सुनते ही मैंने खाने में बनी खिचड़ी को पत्तल में परोस कर, पगलेटी को देने के लिए बरामदे से होते हुए नीचे दौड़ लगा दी| मैंने बड़े प्रेम से खिचड़ी का पत्तल उसके सम्मुख बढ़ाया तो उसने उतनी ही बड़ी नीरसता से उस खिचड़ी से परोसे गए उस पत्तल को ग्रहण किया| उसकी इस नीरसता का कारण न भांप पाने से एकाएक मेरे मुँह से निकला - क्या हुआ कुछ और भी चाहिए?

अपने चिर-परिचित अंदाज़ में तुनक कर पगलेटी ने जवाब दिया - "सुन री पुरिया! खिचड़ी के हैं चार यार - घी-दही-मूली और अचार"|

माँगा तो अचार उसने था पर उसकी बात सुनकर चटखारे मैंने ले लिए| एक पल को तो मैं भूल ही गयी थी यह पागल है| ऐसी चटाखेदार और रसीली बातें तो कोई शायर या लेखक ही कर सकता है| जैसे ही कुछ और सोचती-समझती की तपाक से पगलेटी खिचड़ी का पत्तल उठाकर अपने अगले गंतव्य के लिए प्रस्थान कर चुकी थी| सोचा था कि मैं आज इस अवसर का लाभ उठाकर उसका समूचा जीवन-वृत्तांत सुनूंगी पर मरी ने हाथ भी ना धरने को दिया|

उसके बाद भी जब तक मैं गरमपानी में रही मुझे फिर कोई ऐसा अवसर नहीं मिला| छुट्टियाँ खत्म होने को आयीं और मैं भी वापस लखनऊ आ गयी| आगे आने वाले कुछ मासों तक अपने निकेतन से लेकर विद्या-निकेतन तक सब जगह मैंने बस पगलेटी की ही छटा बिखेरी हुई थी| फिर धीरे-धीरे समय बीतता गया और पगलेटी के किस्से-कहानियाँ भी और मैं भी अपनी लखनऊ की ज़िन्दगी में डूबती-उतरती आगे चलती गयी|

निरंतरता के अनवरत क्रम को पूरा करते हुए अगले वर्ष पुनः ग्रीष्मावकाश का आगमन हुआ और मेरा अपने दुपट्टे में गाँठ बांधकर गरमपानी के लिए निर्गमन| इस बार तो ठान रखी थी कि येन-केन-प्रकारेण अपने कथा-खनक हृदय को पगलेटी का जीवन-वृत्तांत सुनाकर ही शांत करना हैं|

रात की रेलगाड़ी से चलकर अगली सुबह काठगोदाम पहुंचे और वहां से बस का सफर तय करके करीब बारह बजे के आस-पास हम गरमपानी पहुंच गए| पहुंचते ही नहाया-धोया और भोजन-पत्तल सजा कर मैं बरामदे में जाकर चहल-कदमी करने लग गयी|

कुछ क्षणों बाद मेरे अधीर कर्णों को वही अपेक्षित आवाज़ सुनाई पड़ी - पर आज उस आवाज़ में कोई कुमाऊँनी गीत नहीं था| आज तो उसकी आवाज़ में केवल वात्सल्य की पुचकार थी और वह भी मेरे लिए नहीं, केवल नन्दू सिपाही के लिए|

बीते एक वर्ष में और तो कुछ नहीं बदला था सिवाय पगलेटी के हाथों में सहसा आये अतिरिक्त भार के| और उसी भार का नाम था - "नंदू सिपाही"| यह भार कौन-कब-कैसे उसकी झोली में डाल गया; मुझे नहीं लगता कि परमात्मा के अतिरिक्त और भी कोई जानता होगा - न ही समूचा ग्राम और न ही स्वयं महारानी जी खुद|

वह तो मात्र इतना ही जानती थी कि नंदू उसकी कोख से जन्मा उसका आत्मज हैं; शायद यह बोध भी उस अबोध को कोई भला मानुष दे गया होगा| "नंदू" नामकरण भी शायद समस्त संसार का लेखा-जोखा रखने वाले धर्मराज धर्माधिकारी धर्महरि धरमलाल श्री चित्रगुप्त ही स्वयं आकर उसके कान में बता गए होंगे| जैसा कि कुमाऊनी भाषा में कहते हैं न - "गदुआ जस", बिलकुल वैसा ही था| रुई और मक्खन की तरह सफ़ेद और मुलायम से दीखने वाले उस नंदू को देख मुझे महाभारत का वह प्रसंग स्मरण हो आया - जब अविवाहिता कुंती की मंत्र-शक्ति से बंधे सूर्य-नारायण कुंती की इच्छा के विरुद्ध उसे कर्ण आशीर्वाद स्वरुप में दे जाते हैं| संभवतः पगलेटी की लावण्य-शक्ति से बंधे किसी प्रणय-हठी हिप्पी ने पगलेटी की इच्छा के विरुद्ध उसे अपना प्रणय-निवेदन "नंदू" के स्वरुप में दे दिया होगा|

मैं न जाने कब से अवाक् और हतप्रभ सी उन दोनों पर ही टिकटिकी लगाए खड़ी थी| न जाने कितने-कैसे विचार मेरे मस्तिष्क के भीतर प्रविष्ट कर ऐसे भिनभिनाने लगे जैसे किसी क्षणिक उत्पन्न अंतर से कोई मक्षिका कमरे में घुस कर आतंक मचती है| उन भावों और विचारों को शब्दों और वाक्यों में परिवर्तित तो नहीं कर सकती परन्तु हाँ निश्चित ही मेरा मन आतंकित था| उसके प्रत्यक्ष वात्सल्य को देख कभी मेरे ह्रदय में प्रेम उमड़ता था तो कभी उसके अप्रत्यक्ष प्रणय के बारे में सोचकर मेरे मस्तिष्क में घृणा उत्पन्न हो जाती थी|

अपनी क्षणिक कामनाओं की पूर्ति के लिए कोई इतना भी मदांध हो सकता है कि एक जीवन का सृजन कर दो-जीवन का सर्वनाश कर दे|

जिस तरह कुछ समय छोड़ देने के उपरांत पानी में मिली हुई मृदा नीचे सतह में शांत होकर बैठ जाती है, उसी तरह मेरे मन का अंतर्द्वंद्व भी अब कुछ शांत होने लगा था|

मैंने अपना गला खराशते हुए बोला - "ओ पगलेटी यह किसका लड़का उठा लायी है? बड़ा प्यारा दीखता है|"

मैं उसके प्रत्युत्तर के या न सही तो कम से कम एक नज़र के इंतज़ार में काफी देर खड़ी रह गयी थी|

"पगलेटी, ओ पगलेटी" - मैंने बड़े अपनत्व से उसे पुकारा| "अरे सुन न पगलेटी, ऊपर तो देख" - अब मेरे स्वरों में अधीरता का भाव परिलक्षित होने लगा था|

शायद मेरी ईजा ने मेरी अधीरता और उद्विग्नता को भांप लिया था| ईजा अंदर से ज़ोर से बोलीं - "ओ शहरी पुरिया! अब तू उ लिजि उतुक जरूरी निह छ| अब उइल पास उइक च्योल छू|"

यह सुन मैं अपने ऐंठे कलेजे को सम्भालती हुई अंदर कमरे में आ गयी| फिर तो मेरी गर्मियों की छुट्टियां गर्मी में ही बीतीं| पगलेटी के इस प्रकार के व्यवहारिक परिवर्तन से मेरा रोम-रोम क्षुब्ध हो गया था| अब उसे मेरे होने या न होने से लेशमात्र भी फ़र्क़ नहीं पड़ता था| उसकी अब समूची दुनिया उसका नंदू ही था| बस अब पगलेटी उसे ही अपनी आँखों के आगे रखी रहती थी और उसके साथ उसी के बाल-संसार में विचरती रहती| इह दुनिया तो मानो जैसे होम हो गयी थी उसके लिए|

प्रायः एक-दो बार मैंने उससे बात करने की चेष्टा की, उसके और नंदू के साथ खेलने का प्रयत्न किया तो उसने बड़ी निर्ममता से झिड़क दिया - "इथके झन अया, उथके जा"| एक तो मौसम की गर्मी ऊपर से क्रोध की अग्नि में झुलसते हुए मैं ऊपर कमरे में आ गई| ठीक से तो कह नहीं सकती पर शायद थोड़े आंसू भी बहाये जरूर होंगे और वह भी केवल इसलिए कि पगलेटी ने आज मुझे "शहरी पुरिया" कहकर भी सम्बोधित नहीं किया|

अब तो गरमपानी का हवा-पानी भी सहन करना दूभर हो गया था| किसी तरह दो-महीने काट कर वापस लखनऊ आयी तो मेरी मित्र मंडली ने अपने सवालों की बौछार मेरे ऊपर शुरू कर दी - "और कैसी है तेरी पगलेटी? इस बार क्या कहा तेरी पगलेटी ने तुझसे?" इस बार तो उनके सवाल भी किसी विषैले सर्प के डंक जैसे मेरे ह्रदय को और पीड़ा दे रहे थे| आखिर उनके प्रश्नो के उत्तर जो नहीं थे मेरे पास| क्या बताती उन सब को कि अब मेरी पगलेटी मेरी ही न रहकर किन्हीं दो और की हो गई है| मेरी तरफ तो क्षणभर को आँख उठाकर भी नहीं देखा था उसने|

फिर समय बीतता गया और सब आम होता गया|

अनवरतता के चक्र को फिर से पूरा करते हुए लखनऊ की ठंडी हवाओं ने गर्मी दिखानी शुरू कर दी और मैं भी अपने चक्र को पूरा करते हुए फिर से गरमपानी आ पहुँची - निराशा और नीरसता से भरपूर|

एक दिन बीता, दूसरा दिन और फिर होते-होते हफ्ता बीत गया| अब तो पगलेटी ने भी आना बंद कर दिया था| हफ्ता भर बीत जाने के बाद भी जब मैंने पगलेटी का कोई जिक्र नहीं छेड़ा तो एक सुबह ईजा ने ही मुझे वह विषैला सा डांक मार दिया|

"और, अपनी शहरी पुरिया के बारे में नहीं पुछा तूने अब तक| मेरी कोई भी प्रतिक्रिया का इंतज़ार करे बगैर ईजा आगे बोल पड़ी| शायद वो भी उबल रही थीं पगलेटी के क्रिया-कांड का बखान करने के लिए| पर जब मेरी ओर से पगलेटी के सन्दर्भ में कोई भी सवाल, जानकारी या प्रतिक्रिया नहीं आयी तो वह खुद को रोक नहीं पायीं|

"अरी पता है! मरी करमजली ने क्या किया?" - "दुबारा से बच्चा?" - एकाएक मेरे मुँह निकले इन् शब्दों ने ईजा के वाक्य को पूरा कर दिया|

"अरी नहीं! उससे भी बड़ा कांड" - ईजा अपनी आँखों को और बड़ा कर खड़ी हुई तो मेरे कान भी खड़े हो गए| अब तो मेरा चित्त भी आशंकित और आतंकित होना शुरू हो गया था|

अधैर्य से मैंने पुछा - "और क्या बड़ा काण्ड हो सकता है?"

"अरी क्या बताऊँ! पगलेटी ने आखिरकार अपने पागलपन का शिकार नंदू को भी बना दिया" - ईजा ने एक साँस में कविता जैसी पढ़ दी|

मैंने काँपते हुए स्वर में पुछा - "क्या किया उसने, ईजा?"

ईजा ने अब अपनी धूणी रमाते हुए कथा शुरू की - "तो सुन! नीचे कार्यालय के लोग बता रहे थे कि एक दिन नदी के किनारे के खेतों में नंदू को लैट्रीन कराने ले गई और उसके बाद उसका भेल (नितम्ब का कुमाऊंनी शब्द) धुलाने के लिए खेत के सिरे में बनी नहर में उसको लेटा कर अपना लैट्रीन करने लगी|

इसी बीच पानी में डूबने से नंदू ख़तम हो गया| मरी ने एक आंसू भी नहीं बहाया और चुप-चाप उसे गोद में उठा कर ना जाने कहाँ ले गई| दुसरे दिन से पगलेटी का भी कुछ पता नहीं है| पूरे गरमपानी में कहीं भी नहीं दिखी|"

ईजा की निर्बाध कांड-कथा चल रही थी पर न जाने किस क्षण से मेरे कानो में ईजा के शब्द सुनाई पड़ने बंद हो गए थे| अब तो अगर कुछ सुनाई दे रहा था तो वह था नंदू का बाल-सुलभ रुदन और पगलेटी की चटखारें वाली बातें| दोनों की यह स्मृतियाँ मेरे मस्तिष्क में हथौड़े के चोट की तरह पड़ने लग गई थीं| मेरी आँखों की आगे डबडबाने की कारन अँधेरा चा गया था| मैं उठी और शून्य की ओर दौड़ते चली गई| न सुध, न विवेक; न जाने किस औचित्य को मस्तिष्क में दौड़ाये मैं भी दौड़े चली जा रही थी|

उस क्षण जो मेरी मनोस्थिति थी मैं आज तक उसका विश्लेषण नहीं कर पाई हूँ; किसी और के समक्ष परिभाषित करना तो और भी असाध्य-सा प्रतीत होता है|

हाँ पर जब उस शून्य की ओर दौड़ते-दौड़ते मेरी श्वांस उखाड़ने लगी तो मेरी चेतना भी लौटी थी| मैं तो केवल इतना समझ पायीं थी कि मैं घर से काफी दूर खेत में बनी उसी नहर की किनारे-किनारे दौड़ती जा रही थी जिस नहर के जल में नंदू ने अल्प-आयु में ही समाधि ले ली थी|

शायद पगलेटी के नंदू-सिपाही को बचाने का उपक्रम कर रही होंगी| शायद अगर नंदू को बचा पाती तो पगलेटी भी यूँ न अंतर्ध्यान होती|

कभी-कभी सोचती हूँ वह क्यों उसे नंदू सिपाही बुलाती थी| कभी-कभी सोचते हुए यह मनोभाव भी उत्पन्न होता है कि शायद नंदू किसी सिपाही का ही क्षणिक प्रणय-निवेदन तो नहीं था; तो कभी सोचती हूँ की क्या वह नंदू को सिपाही बनाना चाहती थी| बेचारी जो कुछ भी कर पाती उससे पहले ही नंदू सिपाही अपनी उन अलंघ्य परिस्थितियों से लड़ते-लड़ते अंत में वीर-गति को प्राप्त हो गया|

उसका यूँ असमय चला जाना पगलेटी के जीवन में न जाने क्या भावनाएँ भर कर गया होगा| परन्तु वह क्षणिक-परिचिता मेरे मानस-पटल पर एक चिर-स्मृति के रूप में सदैव के लिए अंकित होकर रह गई है| और होती भी क्यों न; आखिर मैं उसकी "शहरी पुरिया" जो ठहरी|


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