मुनिया मैरी और गमले मियां
मुनिया मैरी और गमले मियां
गमलेे मियां एक कौने में चुपचाप बैठे हुए आकाश की ओर देख रहे थे कि सूरज ज़रा सा और ऊपर अाए तो कुछ उजाला हो। दीवार के इस कौने में अंधेरा सा रहता था।तभी उन्होंने किसी के रोने की आवाज़ सुनी। वो तत्काल चौकन्ने हो गए। इधर- उधर देखा। दीवार की नाली के पास ही सिसकी की आवाज़ आ रही थी।उन्हें बड़ी बेचैनी सी हुई। उन्हें लगा कि कौन है जो इस तरह रो रहा है।गमले मियां को अपने बीते हुए दिन याद आने लगे। कभी वो भी तो इसी तरह रोते हुए इस कौने में लाकर रखे गए थे।
अपने बचपन में तो वो बंगले के मुख्य द्वार पर शान से रहते थे। उन पर सुन्दर लाल और सफ़ेद रंग का रोगन होता था। साफ़ मिट्टी और खाद डाली जाती थी। रोज़ ही माली अंकल ठंडे पानी की धार छोड़ कर उनके तन में ताज़गी भर देते थे। और जिस दिन उनमें लगे पौधे पर कोई सुन्दर सा फूल खिलता था उस दिन तो गमले मियां की शान ही निराली होती थी।बंगले से बाहर निकलते समय सब एक बार तो रुक कर उनकी ओर देखते ही थे। चाहे सायकल पर जाते बच्चे हों या कार से निकलते हुए उनके मम्मी- पापा। क्या दिन थे वो भी!
लेकिन एक दिन उनकी मिट्टी में दबे टॉफी के काग़ज़ को एक रुपए का सिक्का समझ कर चौकीदार के बेटे ने जाने कैसे कुरेदा कि उनका एक हिस्सा ज़रा सा टूट कर नीचे ही गिर पड़ा। बस, उसी दिन से गमले मियां की किस्मत पलटा खा गई।वहां से उठाकर घर के पिछवाड़े के इस कौने में पटक दिए गए। अब उनकी हालत ऐसी थी कि न रखने के, और न फेंकने के।यहीं पड़े- पड़े बुज़ुर्ग हो गए। अब न तो कोई उनकी मिट्टी बदलने आता था और न पानी देने। पड़े- पड़े ही उनमें कुछ खर- पतवार उगते रहते थे और उनसे ही घड़ी- दो घड़ी बात करके गमले मियां दिन काट रहे थे।
अब उनका हाल पूछने केवल नाली के मच्छर ही आते थे, और कोई नहीं।सुबह- सुबह रोने की आवाज़ सुनी तो उनका माथा ठनका। इधर- उधर देखने लगे।तभी सामने एक छोटी प्यारी सी बॉल दिखाई दी। वही ऊं- ऊं करके रो रही थी।गमले मियां को दया आई। पुचकार कर बोले- "अरे रे मुनिया, क्या हो गया? अच्छे बच्चे रोते नहीं।"
दीवार को हंसी आ गई। बोली- "वाह गमले मियां, भूल गए, आप भी तो एक दिन रोते हुए ही यहां आए थे।"
" चुप कर !" गमले मियां ने दीवार को डांट दिया। फ़िर बॉल से बोले- "क्या हुआ बिटिया? रोई क्यों"!
बॉल सिसकती हुई बोली- बच्चे खेल रहे थे, खेल- खेल में बल्ले से इतनी ज़ोर की शॉट लगी कि मैं लुढ़कती हुई यहां तक आ गई।
"तो इसमें रोने की क्या बात है, ये तो खुशी की बात है। जिस बच्चे ने शॉट मारा उसे तो खूब रन मिले होंगे। क्या चोट लगी तुझे?"
"मैं चोट से नहीं डरती, उसमें तो मुझे मज़ा आता है।"
"फ़िर? तू रोई क्यों!"
"क्योंकि मैं इतनी दूर कौने में आ गई और जो बच्चा मुझे ढूंढने आया उसे मैं दिखी ही नहीं। उसने जाकर सबको कह दिया कि बॉल खो गई। अब उनका खेल भी रुक गया और मुझे यहीं पड़े रहना पड़ेगा।"
" चिंता मत कर बिटिया, बच्चे इतनी जल्दी हार नहीं मानते, वो तुझे ढूंढने ज़रूर आयेंगे और देखना खोज ही लेंगे।"
"पर अगर उन्हें दूसरी बॉल मिल गई तो वो मुझे भूल ही जाएंगे और मैं यहीं पड़ी- पड़ी सड़ जाऊंगी।"
गमले मियां का गला भर आया। बोले- "ना ना मुनिया, चिंता मत कर। क्या नाम है तेरा?"
"मैरी ! अगर वो नहीं आए तो ?" बॉल ने कहा।
"तो थोड़ी देर में कोई चिड़िया- कबूतर आयेगा, मैं उससे कह दूंगा कि तुझे पंजे से नाली में खिसका दें। तू बह कर बाहर जाएगी तो बच्चों की नज़र पड़ ही जाएगी।"
"ऊं ऊं..." बॉल और भी ज़ोर से चिल्लाने लगी। बोली- "फ़िर तो मैं मिट्टी और पानी में गंदी हो जाऊंगी। बच्चे मुझे छुएंगे भी नहीं!"
गमले मियां घबराए। बोले- अच्छा- "अच्छा रो मत मुनिया।मैं कोई तरकीब निकालता हूं तुझे घर भेजने की।"गमले मियां सोचने लगे।आख़िर बुज़ुर्ग थे। कोई न कोई हल तो निकालते ही।तभी सहसा तेज़ हवा चली। पेड़, पत्ते इधर- उधर हिलने- डुलने लगे।और कोई दिन होता तो गमले मियां दीवार से परे रह कर अपने को गिरने से बचा जाते, पर आज मुनिया मैरी का खयाल था। दीवार से ही जा टकराए।
ऐसे टूट कर बिखरे कि उनकी मिट्टी भरभरा के फ़ैल गई।आवाज़ सुन कर उन्हें उठा कर फेंकने माली आया तो उसकी नज़र बॉल पर जानी ही थी। हुलस कर उसने बच्चों को पुकारा- "मिल गई तुम्हारी बॉल! बच्चे दौड़े चले आए।"
पर मैरी ने बच्चे के हाथ से फ़िर छूट कर ज़मीन पर एक टप्पा खाया और लुढ़क कर गमले मियां की मिट्टी को चूम लिया।अंतिम सांसें गिनते गमले मियां बोले- "ना- ना बिटिया, मिट्टी से दूर रह, मैली हो जाएगी।"
पर मैरी को न मिट्टी की चिंता थी, और न उसकी आंखों से गिरते पानी की... उसे तो जाते हुए गमले मियां को सलाम करना था।