हम पांच और मंसूरी की वो यात्रा
हम पांच और मंसूरी की वो यात्रा
चलो मंसूरी-कई दिनों से हम कही घूमने का प्लान बना रहे थे। हर बार कोई ना कोई काम निकल आता और हमारा प्लान कैंसल हो जाता।
30 अगस्त की वो रात हमने तय कर लिया था कि हमे आज कही ना कही जरूर जाना हैं। हमने से मेरा मतलब यहा, मै और मेरे साथ मेरे पांच साथियों से है।
बस क्या था? रात के दस बजे और हम एक-एक कर दिल्ली की नई पहचान मैट्रो स्टेषन पहुंचे। और सबके आने का इंतजार करते रहे।
रात के दस बजे ऐसा लग रहा था मानो मैट्रो हमारे आने का ही इंतजार कर रही थी। किसी को कुछ पता नहीं था कि हम कहा जा रहे हैं। बस इतना पता था कि कही जा रहे हैं। और वो भी ऑफिस के काम से नहीं।
खैर दिल्ली के यमुना बैक मैट्रो स्टेशन पर सब इकट्ठा हुए। और मैट्रो मे चर्चा का दौर शुरु हुआ। कोई कहता जयपुर चलते है कोई कहता देहरादून और कोई तो विदेश जाने की बात करने लगा।
बस क्या था हमारी बातो को सूनकर मैट्रो मे मौजूद सभी काम के मारे ऐसे खिलखिला उठे जैसे रेडियो एफएम पर नितिन ने हमारे ही ऊपर कोई जोक मारा हो। नितिन को तो आप जानते ही होगे। खैर मेने ये लाइन अक्सर लोगो के मुंह से सुनी हैं। तो लिख दी।
आखिर में दिल्ली के दिल कनॉट प्लेस में ये तय हुआ अगर हमे आखिरी बस मिल जाती हैं तो हम देहरादून चलेगे और अगर नही मिली तो जयपुर। विदेश जाने के सपने ने कनॉट प्लेस के मैट्रो स्टेशन पर आखिरी सांस ली। और हम कश्मिरी गेट मेट्रो स्टेशन जाने के लिये इस तरह भागे जैसे वो आखिरी मैट्रो हो जो कश्मिरी गेट जा रही हो। आखिर में मैट्रो भी हमारे सामने हार मान गई और मैट्रो के सहारे ही हम कश्मिरी गेट पंहुचे।
कश्मिरी गेट पर बोल बम-बम के नारो ने हमारी यात्रा को ओर बल दिया। बारिश के कारण तालाब बन चुके कश्मिरी गेट अंतरराष्ट्रीय बस अड्डे पर हम बिना जाल के मछली ढूंढते घुम ही रहे थे कि पीछे से आवाज आई ‘‘मिल गई’’।
मछली से मेरा मतलब तो आप समझ ही गये होगे। बस फिर क्या था आव देखा ना ताव बिना नाव के हम बस तक पहुंचे ओर पीछे की सीट पर मानो कब्जा ही कर लिया हो। बारिश में गर्मी ने मानो हमे जयपुर के दर्शन भी करा दिये थे।
और बस देहरादून के लिये चल दी। कन्डेक्टर से मेरा पहला और आखिरी सवाल यही था कि, हम सुबह कब पहुंचेगे। जिसका जवाब मै बाद में दूंगा।
दिल्ली की रफ्तार भरी जिंदगी से भागते हुए उत्तराखंड परिवहन की बस लोनी पहुंची। जहां सडक जाम का ऐसा नजारा देखने को मिला जो शायद मैने कभी देखा हो। पानी में पानी की प्यास का अंदाजा भी हमे वही मालूम हुआ।
और हम पर दया खाकर दूसरी तरफ खडे ट्रक के ड्राईवर ने हमे पानी की कीमत का एहसास दिलाते हुए पानी से भरी एक कट्टी थमा दी। पानी पीते ही हम फिर से जीवित हो उठे।
और एक दूसरे की पोल खोलते हुए आगे बढ़ चले। सब भूखे थे..... और एक पांच रूपये के बिस्कुट ने भी हमे अपनी अहमियत बताई। आखिरकार हम जाम से निकले और उस समय का इंतजार करने लगे जब बस हमे वहा पहुंचाती जहा से हमारा पेट भरता ।
रात के अंधेरे में एक अनजान से ढाबे पर तेज बारिश के बीच चाय की महक हमे अपनी ओर खींचती चली गई और पास ही बन रही पकौडियो ने हमारी भूख को ऐवरेस्ट पर ही चढ़ा दिया। जोश में सबने पकौडियो का ऑडर दिया।
और जब उसका बिल आया तो हमे पता चला भ्रष्टाचार शहरो की गलियो से होता हुआ हाइवे के किनारे बसे ढाबो तक पहुंच चुका हैं। खैर हमने 15 के सामान के 60 रूपये हंसते हंसते चुकाये। और ये समझ में आया कि जिसकी लाठी होती हैं उसी की भैस क्यो कहा जाता हैं।
उस रात हमे कई सबक मिले। और सुबह के सात बजे सहारनपुर पहुंचते ही हमे कन्डेक्टर का जवाब पता चल गया कि हम तय समय से करीब चार घंटे लेट है। अब तक रेलो के ही लेट होने की बाते सुनी थी। बस ने भी बता दिया मै भी पूरी भारतीय हुं। पहाडियो की ताजी ओर ठंडी हवा ने पूरी थकान ही उतार दी। ओर प्रदूषण मुक्त हवा ने तो जीवन का एक और साल बढ़ा दिया।
आखिर अपने-अपने शरीर को सीधा करते हुए हम देहरादून के बस अड्डे पर पहुंचे । वहा तो मानो मसूरी जाने वाली गाड़ियो के ड्राईवर जैसे हमारे स्वागत में ही खड़े थे। हर कोई हमे ऐसे ऑफर दे रहा था जैसे सीजन की कोई सेल चल रही हो। इसी बीच हमारे बैग में रखे कैमरे ने हमे ये बताया ‘‘मै भी साथ आया हूं’’। और हमने उसे भी देहरादून की खूबसूरत वादियो को देखने का पूरा मौका दिया।
बस क्या हम मसूरी और हमारे बीच 35 किलोमीटर की दूरी जो पिछले 20 सालो मै पूरी नहीं कर सका था। अपने पांच साथियो के साथ 20 मिनट में तय कर ली।
जैसे जैसे हम पहाड़ो की रानी के करीब होते जा रहे थे। बादल हमे छूकर ऐसे निकल रहे थे। जैसे कोई कैटरीना को छूने की कोशिश कर रहा हो। अरे अपनी कैटरिना बाॅलिवूड फिल्मों की अभिनेत्री।
ऐसा मौसम दिल्ली में शायद जनवरी में भी देखने को ना मिलता। हमारी तो जैसे लॉटरी ही लग गई हो। इस लॉटरी को हम भुना ही पाते कि मसूरी में वैन चलाने वाली यूनियनों का हमे बता दिया की हम सैलानी हैं। बस किसी तरह वहां से जान बचा कर निकले या ये कहे भागे तो गलत ना होगा।
ड्राईवरो की कम पैसे बताकर ज्यादा पैसे लूटने का ज्ञान ही हमे वही से मिला। खूबसूरत वादियो के बीच हम ये तय नहीं कर पा रहे थे कि हम क्या करे, कहा जाये आखिर में ये तय हुआ कल सुबह ही ऑफिस ज्वाइन करेंगे।
लिहाजा ना चाहते हुये भी सब अपने-अपने बैग कंधे पर टांगे अब दिल्ली दूर नहीं का नारा लगाते हुए वापिस चल दिये और सबने ये तय किया क्यो हम हमारी भारतीय रेल को भी हमारे साथ यात्रा करने का मौका दे।
