Animesh Kumar

Children Stories

5.0  

Animesh Kumar

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दो रंग के जूते

दो रंग के जूते

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कुछ सालों पुरानी बात है। मैं उस समय पटना में कार्यरत था। हर महीने की पहली तारीख को सबकी साझा बैठक होती थी ऑफिस में, बीते महीने का अवलोकन करने और आने वाले महीने के लिए प्रारूप तैयार करने के को। उस दिन सूरज सर थोड़ी देर से पहुंचे थे। अभी उन्होने कमरे का दरवाजा खोला ही था कि रंजन बाबू (सहकर्मी) ने टोक दिया – "क्या सूरज बाबू, आज बड़ी देरी से उगे आप तो।" सारे लोग ठठा कर हंसने लगे। रंजन बाबू रुके नहीं और बोले- "लेकिन लगता है कि सूरज अभी तक बादलों के पीछे ही छुपा हुआ है,वैसे लगता है आजकल दो रंग के जूते  पहनने का फ़ैशन आ गया है।" सूरज सर ने कुछ नहीं कहा और हल्के से मुस्कुरा कर और देरी के लिए सॉरी बोलकर बैठ गए अपनी जगह। 


अगले दो घंटों तक पाँच-छ: लोगों ने किसी ना किसी बहाने से उनके दो रंग के जूते को लेकर उन्हें छेड़ा। सबको पता था की हंसमुख स्वभाव होने की वजह से सूरज सर बुरा भी नहीं मानेंगे। और जब उनका प्रेजेंटेशन आया तो सारे लोग एक बार फिर रंजन बाबू के किसी नए जुमले पर ठठा कर हंसने लगे। और हर बार सर हल्की सी मुस्कुराहट देकर रह जाते थे वो। मगर उनकी आँखों का भाव उनके मुस्कुराने के साथ मेल नहीं खा रहा था। आँखों में एक अजीब सी ख़ामोशी थी। हालांकि पिछले दो-तीन महीने से उनका टारगेट पूरा नहीं हो रहा था, लेकिन उनके जैसे व्यक्तित्व के लिए यह मामूली बात थी। उनसे नजदीकी होने के वजह से मुझे थोड़ा अटपटा लगा था। वाकई आज बादल ने घेर रखा था सूरज को... मैंने तय कर लिया कि शाम को बात करके देखूंगा। 


ऑफिस का समय खत्म होते ही मैं सूरज सर के पास पहुंचा । ‘"सर, चलिए ना ,नीचे चाय पीने चलते हैं’- मैंने बिना किसी भूमिका के सीधे बोल दिया । पहले तो वो ना-नुकुर करते रहें, मगर मेरे जोर देने पर तैयार हो गए। "अच्छा ठीक है चलो, मगर मुझे जल्दी घर जाना है"- कहकर वो साथ चल दिए। गुमटी में हम दोनों बैठे थे और चाय आ गई थी। मुझे लगा यही सही मौका है सर से पूछने का कि बात क्या है ! "सूरज सर’ एक बात पूछनी थी"- मैंने धीरे से कहा उनसे । उन्होने कुछ कहा नहीं तो मैंने उनके मौन को ही स्वीकारोक्ति समझ कर बात आगे बढ़ाई – पिछले एक – "दो महीने से मैं देख रहा हूँ आप परेशान से रहने लगे हैं, क्या बात है? कोई बड़ी परेशानी है क्या?" "अरे नहीं ऐसी कोई बात नहीं है"- कहकर वो चुप हो गए। मैं चुप नहीं हुआ- सर टारगेट को लेकर अगर परेशानी है तो मुझे लगता है की बेकार बात है, आप मुझसे ज्यादा अनुभवी हैं और आपको भी पता है की ऊपर-नीचे होता रहता है । और आप परेशान नहीं हैं तो फिर अपने पैरों में दो अलग-अलग रंग के जूते पहन कर आप जानबूझ कर तो नहीं आएंगे ना... । मैंने आखिरकार अपने मन की बात पूछ ली । और अजीब सी खामोशी छा गयी ... 


दो मिनट तक चुप रहने के बाद मुझसे नजरे मिलाए बिना, चाय के खाली ग्लास को देखते हुए वो बोले-

"टारगेट नहीं होने से तो मैं कभी परेशान रहा ही नहीं, इस बार नहीं तो अगली बार हो ही जाएगा । असल में थोड़ी पारिवारिक परेशानी में फंसा हुआ हूँ, बस ।

" कैसी परेशानी ? मैंने तपाक से पूछा।"

‘अरे कोई खास बात नहीं हैं’- कह के वो उठने लगे ।

मैं बैठा रहा और उनकी तरफ असहमति भरी निगाहों से देखा । वो वापस बैठ गएं । उनके चेहरे का भाव अब बदल रहा था, मैं देख पा रहा था ।

" मैं कैसे बताऊँ तुम्हें, समझ नहीं आ रहा ।" मैंने कहा "आप बताइए तो, शायद मैं कोई मदद कर सकूँ ।"

वो धीमी आवाज में बोले- मेरी मदद तो ऊपरवाला भी नहीं कर सकता । असल में मेरे बेटे की तबीयत बहुत खराब है । डॉक्टर का कहना है की अब उसके पास बस चार-पाँच महीने ही हैं । उमर ही क्या है उसकी... ! तीन साल की उमर में कैंसर कहा है उन्होने उसे । हर जगह दिखा लिया मगर हर जगह से यही जवाब आता है की अब कुछ कर नहीं सकते । आजकल हमारी बस यही कोशिश रहती है की उसको दुनियाँ की सारी खुशियाँ दें । बहुत शरारती है, जब भी थोड़ा सा अच्छा महसूस करता है इधर-उधर धमाचौकड़ी मचाने में लग जाता है । हालांकि पूरे दिन में एक से दो घंटे ही वो खेल पाता है मगर उसके उस समय उसके साथ बिताने के लिए मैं कुछ भी कर गुजर सकता हूँ । थोड़ी देर बाद ही वो थक कर बिस्तर पर पड़ जाता है । शरीर ने उसका साथ छोड़ना शुरू कर दिया है । खुद को तो मैं समझा भी लूँ, मगर जब उसकी आँखों में शरारतों के वक़्त आती हुई चमक देखता हूँ तो अंदर से काँप जाता हूँ । जिंदगी ठीक से शुरू भी नहीं हुई है… 


आज सुबह की ही बात है, मैं ऑफिस के लिए तैयार हो रहा था तब तक वो उठ गया और खेलने लगा । मैं जब जूते पहनने के लिए दरवाजे के पास गया तो देखा की जनाब जूते की पालिश की डिब्बियाँ खोल कर बैठे हैं और बीच में मेरे एक पाँव का जूता रख हुआ था । जूते में तो जो लगाया वो लगाया ही था मगर उस नौटंकी ने अपने कपड़ों और गालों में भर के पालिश लगाया लिया था । मुझे देखते हीं वो अपनी तोतली भाषा में बोला – पापा, आपका जूता मैंने तमका दिया है औल आप यही पहन के दाना आफीस ... मैंने देखा ध्यान से तो उस पगले ने मेरे भूरे जूते के ऊपर काली पालिश लगा दी थी । मैंने उसे ज़ोर से पकड़ कर गले लगाया और थैंक-यू बेटा कहा । फिर उसके साथ खेलने लगा । सोचा की वो सो जाएगा तो जूते को ठीक कर लूँगा । मगर आज वो बहुत अच्छा महसूस कर रहा था और थक भी नहीं रहा था । मैं और उसकी माँ दोनों बहुत खुश थे, ऐसा लग रहा था की ये समय बस यहीं रुक जाये और हम उसी रुके समय में अनंत काल तक पड़े रहें । मगर ऐसा हो नहीं सकता । मैंने उससे नजरे चुरा कर ऑफिस के लिए निकलने लगा तो वो टाटा करने आ गया । मैंने जब वो जूते पहनें जिसमें से एक का रंग अब काला था, उसकी खुशी का ठिकाना नहीं था । बहुत दिन बाद मैंने उसको इतना खुश देखा था और उस मुस्कान के लिए मैं जिंदगी भर दो रंग के जूते पहनने को तैयार हूँ । जिसे जो लगना है लगे, जितना हँसना है हँसे... कह कर सूरज सर उठे और वहाँ से चले गएं । मैं वहीं बैठा रहा..


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