डोर टू डोर कैंपेन- 2
डोर टू डोर कैंपेन- 2
कुत्तों में अपनी इस मानव - प्रियता ने आख़िर अपना रंग दिखाना शुरू किया। कुछ दबंग, ऊंची नस्ल के कुत्ते एक सुनहरे भविष्य के सपने देखने लगे। जब वो सड़क पर या किसी पार्क में अपने हम - ख़्याल श्वानों से मिलते तो आपस में बात करते। कहते- "हम सब को एक होकर कुछ बड़ा करना चाहिए। हम पशु हैं तो क्या, मानव बस्तियों में हमारी अच्छी पकड़ है।" आदमी हमें मानता है।
"लेकिन क्या? कुछ झबरीले नाज़ुकदिल कुत्तों ने कहा।
"अब वो दिन नहीं रहे जब शहर आदमियों के लिए होते थे और जंगल जानवरों के लिए। एक डॉबरमैन ने कहा।" उसका समर्थन पास ही खड़े जर्मनशेफर्ड और हंटर ने भी किया।
"तो क्या हुआ, हम भी जंगल छोड़ कर शहरों में आ तो गए। गाड़ियों में घूमते हैं, और क्या चाहिए"? एक बेहद संतोषी छोटे से कुत्ते ने कहा।
"नहीं नहीं! ये ठीक नहीं। हमें अपनी प्रतिष्ठा और लोकप्रियता का कोई बड़ा लाभ उठाना ही चाहिए।" एक खूंखार अल्सेशियन ने कुछ गुर्राते हुए कहा।
छोटे कुत्ते सहम गए।
तब एक बेहद ऊंचे शिकारी कुत्ते ने कहा- "हम शहरों में आ गए तो क्या? आज भी हमें दूसरे चौपायों की तरह जानवर ही समझा जाता है। जंगल का राजा शेर ही हमारा भी राजा है। आख़िर हमारे संपर्कों का फ़ायदा ही क्या, जब हमारे मालिक इंसान और हम जानवर कहलाएं?"
"क्या आप अब अपने को इंसान ही कहलाना चाहते हैं? क्या हम अब दो पैरों वाले बन जाएं?" एक छोटे से पिल्ले ने डरते - डरते कहा।
सब हंस पड़े। पार्क में घूमते लोगों ने कुत्तों को हंसते देखा तो वो भी सहम गए। उन्होंने अपने इन मित्रों को हमेशा भौंकते और गुर्राते हुए ही सुना था, कभी हंसते हुए नहीं देखा था।
वे अपने- अपने डॉगी की ज़ंज़ीर खींचते हुए अपने घरों को लौट चले।लेकिन आज की बातचीत से सब कुत्तों की आंखों में नए सपने तैरने लगे।