Deepash Joshi

Others

4.9  

Deepash Joshi

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चिट्ठी... और अब !!

चिट्ठी... और अब !!

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“ट्रिन, ट्रिन.... ट्रिन, ट्रिन.....अरे अकंल जी ! हटो हटो...."

ऐसा कहते कहते ना चाहते हुए भी गुड्डी की साइकिल रमेशचन्द की मोटरसाइकिल से जा टकराई। गुड्डी आँखें नीची करके खड़ी हुई थी और रमेशचन्द उसे देखे जा रहा था। रमेश्चन्द उस गांव का डाकिया था। जो हर महीने गुड्डी के स्कूल में मासिक पत्रिका देने को आता था। आज भी वह स्कूल की आधी छुट्टी यानी लंच टाइम में स्कूल के उस संकरे दरवाजे से अपनी पुरानी मोटरसाइकिल को अन्दर घुसा रहा था कि तभी गुड्डी को अपनी काले रंग की एटलस साइकिल को लेकर बाहर आना हुआ। और तभी दोनों की गाड़ियां (जिन्हें वे दोनों अपने हवाईजहाज मानते थे) आपस में टकरा गई। गनीमत थी कि दोनों हवाइजहाजों और उनके पायलटों को इन भिड़ंत मे जरा भी खरोंच नहीं आई ।


गुड्डी ने थोडी हिम्मत जुटा कर आँखें उठाकर कहा - "क्या अकंल जी....? थोडा़ देख कर तो चलाया करो ना......... अभी मेरी साइकिल के लग जाती तो...............?" उसकी चिन्ता साइकिल के प्रति इतनी देखकर पोस्टमैन रमेशचन्द का गुस्सा भी पता नही कहाँ काफूर हो गया और वो अपनी शक्ल पे बनावटी गुस्सा लाकर बोला - “गलती तो तेरी ही थी बिटिया। तेरी वजह से मेरी प्यारी मोटरसाइकिल पर भी स्क्रैच आते आते रह गया और ऊपर से मेरा बैलेंस तूने बिगाड़ दिया जो अलग.......मैं भी तो गिरने से बचा हूँ । चल बड़े सर के पास.... उनको बताता हूं तेरी करतूत "


“ ना ना अकंल जी.. गलती तो मेरी ही थी। आप तो सही चला रहे थे बिल्कुल । मैं ही जरा जल्दी में थी । आप जाओ बड़े सर के पास मैं तो बाहर जा रही हूँ ।"


रमेशचन्द भी मजाक करने के मूड में था। तभी उसने बड़े सर यानी कि स्कूल के प्रिंसिपल को स्कूल ग्राउण्ड में देख लिया । शायद वह भी लंच टाइम में बच्चों के साथ बातें कर रहे थे । उनको देखकर पोस्टमैन रमेशचन्द ने आवाज लगा दी - “सर जी नमस्ते !"

इतना सूनते ही गुड्डी सोच में पड़ गई कि आज तो उसकी शिकायत होनी पक्की है और वो भी बडे़ सर से ।

 

बड़े सर वैसे तो बहुत अच्छे थे पर थे अनुशासन के पक्के। खुद भी अनुशासित रहते और स्टाॅफ के बाकी सदस्यों और सभी बच्चों को भी हमेशा अनुशासन में रहने के लिए कहते थे । तभी बडे़ सर ने भी दूर से ही उनके नमस्ते का जवाब दिया - "नमस्ते रमेश जी । आओ-आओ और ये आपके साथ कौन खड़ी है साइकिल पर..?  इसे भी मेरे पास ले आना।"

 अब तो गुड्डी को पक्का यकीन हो गया था कि हवाईजहाजों के टक्कर की खबर पूरा स्कूल सुनेगा और इल्जाम आएगा बेचारी गुड्डी पर । चुपचाप भारी कदमों से गुड्डी ने साइकिल को पीछे किया और स्कूल के एक कोने में बने छोटे से साइकिल स्टैण्ड की तरफ साइकिल रखने के लिए चल दी।

 

 “बडे़ सर ने बुलाया है.. साइकिल रख कर जल्दी आना ।" पोस्टमैन की ये आवाज भी पीछे से उसने अनमने मन से सुन ली।

 मरता क्या ना करता !! इसी के साथ गुडडी प्रिंसिपल के कमरे की तरफ चल दी । वहाॅ अन्दर घुसने से पहले वो थोड़ा रुकी और अन्दर की तरफ कान देकर बातें सुनने लगी। अन्दर प्रिंसिपल और पोस्टमेन रमेशचन्द बातें कर रहे थे।

"अजी रमेश जी ! अब के जमाने में वो बात कहां रह गई है जी ? पहले खूब चिठ्ठियाॅ आती थीं। लोग इन्तजार करते थे खतों का, समाचारों को हाल-चाल जानने का । मतलब एक तरह से अलग ही खुशी मिलती थी चिठ्ठियों सें ।"

 "बिल्कुल ठीक कहा सर जी आपने । पहले हम पोस्टमैन भी जब किसी कि चिठ्ठी पढकर सुनाते थे तो लगता था उसके अपने ही है हम । लोग भी हमें अपना मानकर मान-सम्मान देते थे पर अब इस मोबाइल की दुनिया ने हमें तो लोगों से दूर कर ही दिया हैं । और फिर इतना ही नहीं लोग खुद से भी दूर हो गए हैं।" "काश वो पुराने दिन वापस आ जाए खतों के.. तो रिटायरमेन्ट का जो ये थोड़ा टाइम बचा है। उससे एक बार फिर से अच्छे से खुश होकर लोगो से जुड़ सकूँ। यही इच्छा रह गयी अब तो ।" 


अब तक गुड्डी को लग गया था कि अन्दर का माहौल उसके लिए सुरक्षित है । इसलिए वह गेट पर खड़ी होकर बोली- "सर ! आपने बुलाया था मुझे ।"


अपने मोटे फ्रेम वाले चश्मे को संभालते हुए दरवाजे की तरफ देखते हुए बड़े सर बोले- "हाँ हाँ ! अन्दर आओ गुड्डी बेटा।

क्या कर रही थी तुम मेन गेट पर ? कहीं जा रही थी क्या ?"


गुड्डी ने एक बारगी तो पोस्टमेन की तरफ देखा तो वह केनींग की कुर्सी में अन्दर घुसा हुआ उसकी तरफ आँखें घुमाते हुए ऐसा इशारा किया जैसे कि उसने कोई बात बड़े सर को बता दी हो।

गुड्डी हिच-किचाते हुए बोली- "जी सर.. सर वो मैं.. लंच टाइम में अपनी साइकिल पर बैठ कर घूमने जा रही थी... "

तभी उसे बीच में ही टोकते हुए प्रिंसिपल बोले - "यह हमारे स्कूल की सबसे अच्छी मेहनती और होशियार लडकी है रमेश जी। अभी तो नौवी कक्षा मे पढती है सिर्फ, मगर समझ ऐसी है कि बड़ें-बड़ों में भी कम ही हो । "

 फिर गुड्डी की ओर मुँह करके बोले - "बेटा साइकिल चलाना तो अच्छी बात है इससे हमारे शरीर कि मेहनत भी हो जाती है मगर लंच टाइम में स्कूल से बाहर जाना अच्छी बात नहीं है । अब से तुम्हें साइकिल चलाना हो तो स्कूल के खेल मैदान में ही साइड में चला लेना। ठीक है ना ?"

 " जी। ठीक है सर।" इतना कहकर गुड्डी ने एक बार फिर पोस्टमैन की आखों में देखा तो अब उसने पाया कि एक बडे-बुजुर्ग की आशीवार्द देने वाली आँखें उसे देख रही थी।

एक पल के लिए उसने मन में कुछ सोचा और प्रिंसिपल के कमरे से बाहर आ गई ।



इस घटना के बाद बमुश्किल कोई बारह-पंद्रह दिन ही निकले होंगे कि पोस्टमैन रमेशचन्द का स्कूल में दोबारा आना हुआ। वह इस बार सीधे ही प्रिंसिपल के कमरे में गया और नमस्ते किया । उस समय प्रिंसिपल के कमरे में दो अध्यापक बैठे थे। उनको भी पोस्टमैन ने नमस्ते किया ।

प्रिंसिपल ने भी उसकी नमस्ते का जवाब दिया और कहा - "क्या बात हे रमेश जी । आज आपकी आँखों में कुछ अलग ही चमक नजर आ रही है । कुछ बात है क्या ?"

"जी हाँ सर जी । आज कुछ बात तो हैं । और वो भी स्पेशल ।"

"अरे वाह..!! तो जल्दी से बता दो फिर।" प्रिंसिपल सर ने भी उत्सुक होकर पूछा।

"सर जी । आपके लिए चिठठी आई है एक.."

"चिटठी.....!! और अब.......?" "क्यों मजाक करते हो रमेश जी ? सीधे-सीधे वो स्पेशल बात बताओ आप तो ।"


"अरे सर......में सच ही कह रहा हूँ। आपके नाम से चिठठी आई है । वही पुरानी वाली चिठठी......"

इतना कहकर रमेशचन्द ने अपनी डाकिये वाले झोले (जिसमें कि बिल्कल करीने से जमी हुई डाके, पत्रिकाएं, किसी के ऑनलाइन आर्डर किये हुए सामान और भी ना जाने क्या क्या थे) में से एक खाकी पीले रंग की वही पुरानी चिठठी या पोस्टकार्ड निकाला जो 25-25 पैसे में डाकघर में मिल जाया करता था।

उस चिठठी को देखते ही कमरे में बैठै हुए अन्य दो अध्यापकों के मुॅह से एक साथ ही अचानक निकल गया - "अरे वाह ! चिठठी" 


उनके इन तीन शब्दों में जो खुशी झलकी थी उतनी तो शायद पोस्टमैन रमेशचन्द के चेहरे पर भी नहीं आई होगी।


तुरन्त ही उनमें से एक बोला - "सर। जल्दी देखिए और बताइए क्या लिखा है चिठठी में ।"

उस अध्यापक का यह वाक्य सुनकर पोस्टमैन को वह पुराना टाइम याद आ गया जब वह किसी को कहता था कि तुम्हारे नाम की चिठठी आई है और वह बैचेनी से पूछता था कि क्या लिखा है चिठठी में ।


प्रिंसिपल सर ने भी आश्चर्य से उस चिठठी को हाथ में लिया और ऐसे देखते रहे मानो वक्त ठहर सा गया हो। तभी उन्हे याद आया कि चिठठी पढ़ना भी है तो उन्होने उसे पढ़ना शुरू किया।



"नमस्कार सर ! प्रणाम,

         आप विधालय के सबसे बडे़ अध्यापक हो।यानी कि इस परिवार के मुखिया हो। आप अपना परिवार चलाना बहुत अच्छे से जानते हो सर। आपने कई सारे बच्चों को अच्छीशिक्षा

देकर उनके जीवन को संवारा है, उनके परिवारों को ढेर सारी खुशियां दी है । उन सभी के बदले में मैं आपको एक छोटी सी खुशी देना चाहती थी इसलिए आपको ये चिठठी भेजी है।


आपको आपके पहले के टाइम में ले जाकर आपको उसी टाइम की याद दिलाना चाहती थी । जब लोग एक दूसरे के साथ रहते थे। सभी लोगों के पास खूब टाइम होता था। एकदूसरे के लिए । तब के लोग दूर होने के बाद भी चिठठीयों के जरिये पास हुआ करते थे । तो उसी समय को अब ज्यादा से ज्यादा आपके और आप जैसे उन सभी लोगों के पास मैं वापस लाने की कोशिश करूंगी चिठठीयां लिखकर।

अब से आपको मेरी चिठिठयों का इन्तजार रहेगा या नहीं। ये भी मुझे आप चिठठी लिखकर ही बताना।

आपकी प्यारी

साइकिल"



"मेरी प्यारी साइकिल ! सर आपकी साइकिल भी चिठठी लिखना जानती है क्या ?" एक अध्यापक ने मजाक में हंसते हुए कहा!


इतना सुनकर कमरे में बैठे चारों व्यक्तियों के चेहरे पर हंसी आ गई।


"अब पता नहीं कौन है ये साइकिल ? जो चिठठी लिखती है।" प्रिंसिपल सर ने थोड़ा उदास होने का नाटक करते हुए कहा। फिर आगे बोले-"खैर जो भी हो वो साइकिल , उसे धन्यवाद जरूर दूंगा मुझे इतनी खुशी और इतना पुराना प्यारा टाइम देने के लिए ।"


"अरे सर जी। आप नही पहचाने क्या उस साइकिल को अभी तक....?"


"नहीं तो रमेश जी ! आप जानते हैं क्या उसें ?" "नाम बताइए जल्दी से जरा। "


 "जी सर बुलाता हूँ अभी। अन्दर आना बिटिया जरा...."


 प्रिंसिपल सर और अन्य दो अध्यापकों का आश्चर्य प्रसन्नता में बदल गया जब उन्होंने गुड्डी को सामने देखा।उनको बड़ा गर्व भी महसूस हुआ कि सरकारी विधालय में कक्षा 9 में पढने वाली एक लड़की क्या इतनी बड़ी सोच रख सकती है।मगर प्रिंसिपल सर अभी भी सवालिया नजरों से गुड्डी की ओर देख रहे थे और उन्होनें आखिरकार पूछ ही लिया - "ये साइकिल नाम से चिठठी क्यों लिखी गुड्डी बेटा तुमने..?"


गुड्डी कुछ कहती उससे पहले ही पोस्टमैन रमेशचन्द हँसते हुए बोल पडा - "ये राज की बात है सर जी.. आप सिर्फ आम खाइए, गुठलियां मत गिनिए.."


ऐसा कहकर वह गुड्डी की तरफ देखकर हंसने लगा। गुड्डी ने एक बार फिर पोस्टमैन की आँखों में देखा तो उसने फिर से पाया कि एक बडे़-बुजुर्ग की आर्शीवाद देने वाली आँखे उसे देख रही थीं और एक सवाल भी पूछ रही थी.."अगली चिठ्ठी कब? "





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