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Abdul Kalim khan

Others

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Abdul Kalim khan

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बुनियाद मेरी कच्ची नहीं है जनाब

बुनियाद मेरी कच्ची नहीं है जनाब

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बुनियाद मेरी कच्ची नहीं है इसको क्या गिराओगे जनाब,

हालात के थपेडे खा खाकर मंजिल यह पाई है।

मंजिल ने राह में कांटे बिछाए थे मगर, मंजिल को क्या पता

हमने भी खार को गुलों में बदलने की कला पाई है।

गुलों ने अपना हुनर चुरा लिया मगर,

हमने भी हमारी सीरत की महक चहुं ओर फैलाई है।

महक ने अपने आपको दूर कर लिया हमसे मगर,

हम भी जिद्दी ठहरे, हमने भी महक को हमारी सांसों में बसाने की कसम खाई है।

सांसों ने हमसे नाता तोड़ने की बात की मगर,

हमने भी सांसों से दो घड़ी मोहब्बत के लिए मोहलत पाईं है।

मोहब्बत का नाम सुनते ही,

सांसों ने हंसकर कहा जी ले जिंदगी अपनी,

इस तरह हमने हमारी मंजिल पाई है।


 


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