बिजली की खोज
बिजली की खोज
पिछले कई वर्षो से एक सवाल मन में विचर रही है, जिसका उत्तर आज भी मैं ढूंढ रहा हूँ। सवाल ये है कि, " क्या हम प्रकृति की सरंक्षण कर रहै है या फिर प्रकृति हमारी"?
आइये इसका उत्तर मैं अपने अत्तित के पन्नो में जाकर ढूंढने की कोशिश करता हूँ।
शाम का वक़्त था, यही कुछ साढ़े छह: बज रहे होंगे। दादा जी कुर्सी लगाकर बाहर चाय की चुस्की ले रहे थे। तभी अंदर से 4 वर्षीय का उनका पोता अंदर से बाहर आया और अपनी जिज्ञासु आँखों से सब कुछ निहारने लगा। तब ही अचानक से एक परिवतर्न दिखा। हटिया रेलवे कॉलोनी की सारी स्टीर्ट लाइट जल उठी। और एक ही छण में रात के अंधेरे को धूमिल कर दिया गया। और उस बच्चे की जिज्ञासा जाग उठी। तो फिर क्या था, संकोची स्वभाव भी उस बच्चे का अपनी जिज्ञासा को प्रश्नों में तब्दील करने से न रोक पायी।
भला समुद्र से उठते तूफान और बच्चों के जिज्ञासा को कोई रोक पाया है। ये मंजर भी कुछ ऐसा हीं था।
पोता-( अपनी नन्ही सी उंगली को लंबे से पोल की तरफ इशारा करते हुए)- ये क्या है?
दादा जी- ये बिजली का पोल है?
पोता- ये ऊपर में क्या है?
दादा जी- ये ट्यूब लाइट है।
पोता- ये कैसे जल रही है?
दादा जी (मुस्कुराते हुए)- बिजली से।
पोता- ये बिजली कैसे बनती है?
दादा जी( फिर से मुस्कुराते हुए)- पानी से ।
पीने के पानी से बिजली ! आश्चर्य की बात तो थी उस नन्हें से जान के लिये। पोता आगे कुछ पूछ पाता।
आगे प्रश्नों की जटिलता बढ़ने के डर से उन्होंने उसके माँ को बुला कर, अपना पीछा तो छोड़वा लिया।
दादा जी के लिए प्रश्नों की जटिलता उनकी जानकारी को लेकर न थी, वो तो एक प्रखाण्ड विद्वान थे, बल्कि उस बालक के उम्र को लेकर थी।
पिछले पचास सालों की शिक्षा व्यवस्था ने ये तो तय कर दिया है कि हर चीज़ जाने ने के लिए आपकी एक उम्र होनी चाहिए।
जहाँ एक और आधुनिक विज्ञान ये मानने लगे गया है कि बच्चों का बौद्धिक विकास माँ के गर्व से होना शुरू हो जाता है। हम तो अपने संस्कृति के महाभारत की कहानियों को भी भूलने लगे हैं, जहां अभिमन्यु ने माँ के गर्व में हीं चक्रव्युह रचना का भेदन सिख लिया था।
खैर छोड़िये इन बातों को हम वापस इस बच्चे की बिजली की खोज में निकलते हैं।
इस बच्चे को ये तो समझ आ गया कि पानी और बिजली में एक अत्यंत ही गहरा संबंध है।
अब क्या था, बारिश आये बिजली कड़के और बच्चा मन्द ही मन्द मुस्कुराये, अच्छा ये पानी ने बिजली को पैदा किया है।
पड़ एक दुविधा में हमेशा फंस जाए, जब बिजली चले जाए तो ये सप्लाई की पानी भी रुक जाए। यहां तो उल्टी गंगा बहने लगी। पैदा तो पानी बिजली को करता है, ये बिजली जाने से पानी क्यों रुकती है।
पर 1995 में, गूगल बाबा का अभाव और इस बच्चे का संकोची स्वभाव, इस दुविधा को प्रश्न ही रहने दिया।
पांच वर्षों के बाद ये जिज्ञाषा का पन्ना फिर से खुला, सरस्वती शिशु मन्दिर के कक्षा पंचम में , एक नए चीज़ का खुलासा हुआ। जब आचार्य जी ने बच्चों को खनिज पदार्थों के बारे में बताया और उसमें भी कोयला। जिससे बिजली भी पैदा की जाती है। और फिर बताया कि अगले 50 से 60 सालों में ये कोयला खत्म भी हो जाएगा।
उस बच्चे की चिंता बढ़ गयी, इसिलए नहीं की प्रकृति का क्या होगा और फिर बिजली कैसे मिलेगी।
बल्कि उन लोगों का क्या होगा जो उसके पिताजी के साथ कोल् इंडिया में काम करते हैं। उनकी रोजी रोटी तो बन्द हो जाएगी। चिंता तो उसकी ये भी गंभीर थी।
फिर चार साल बाद वो कक्षा नौंवीं में गया तो उसे अपनी जिज्ञासा समापन की ओर बढ़ती दिखने लगी। जब उसके भौतिक विज्ञान के शिक्षक ने बिजली बनाने के पूरी प्रक्रिया को विस्तार से समझाया।
बचपन मे उठी उस बिजली की जिज्ञासा का हल उसे नौ साल बाद मिला। चलिए देर मिला पर दुरुस्त मिला, धन्य हमारी शिक्षा व्यवस्था।
इस बात की स्पष्टता तो होने लगी कि हम प्रकृति के सरंक्षण में है। उसे इस बात की समझ आने लगी कि जो भी सुविधायें हम भोग रहे हैं वो प्रकृति से हीं है।
अब उसका जीवन का ध्येय बदलने लगा। प्रकृति के प्रति उसकी संवेदनायें बढ़ने लगी। "सेव नेचर" के नाड़े उसे आकर्षित करने लगे। जीवन उसका इन पहलुओं पड़ सोचने में कटने लगा कि हम अपने इस प्रकृति की रक्षा कर सकते हैं।
इन्हीं सब चिंताओं के बीच "फनी" नामक तूफान के आगमन की सूचना हुई, और सारे तटवर्तीय राज्यों में एक हड़कम्प से मचने लगा। क्योंकि ये प्रकृति का ऐसा भयावह रूप है जिसे कोई रोक नहीं सकता। जिससे कोई लड़ नहीं सकता। लोगों को विस्थापित होना हीं होगा।
उस बच्चे का सवालों का भंवर फिर से शुरू हो गया? और निष्कर्ष में ये आया कि ये प्रकृति के सारे गुण तो भगवान के गुणों से मेल खाते हैं। और भला भगवान की रक्षा हम कैसे कर सकते हैं। हमें तो केवल उनका सम्मान करना सीखना चाहिए।