अदीबा
अदीबा


आज घर में फिर लड़ाई हुई। एक एक कर घर के सारे सामान बाहर आने लगे जैसे अचानक खिली धूप के बीच बारिश होने लगे और ओले पड़ने लग जाए, इन ओलों से लगी चोट को सहना बड़ा मुश्किल काम है। इस बात को समझते हुए करीम कुछ बर्तन की चोट सहकर घर से बाहर निकल गया।
यह कोई नया तमाशा नहीं था। अब यह पूरे मोहल्ले के लिए आम बात हो चुकी थी। जब से अदीबा करीम से निकाह कर इस नए घर में आयी थी तब से ऐसे झगड़े होना बहुत आम बात थी। ऐसा नहीं था कि उनके बीच कोई मनमुटाव था बल्कि अदीबा के दिमाग में एक बात घर कर गयी थी। दिमाग भी शैतान का घर होता है, जब तक सही दिशा में है तो सही मगर जैसे ही दिशा से भटकता है कितनी गहराई में जाकर रुकेगा यह खुद उसके लिए सोच पाना भी मुश्किल है।
जब भी ऐसा होता तो करीम घर के सामने चाय की दुकान पर चल जाता। काका की चाय पूरे शहर में नामी थी दूर दूर से लोग चाय पीने आया करते थे लेकिन प्रकृति के अटूट नियम को कौन टाल सकता है जिसके यहाँ जितनी अधिक भीड़ दिखती है वह उतना ही अकेला भी होता है। काका का सबसे करीबी करीम ही था। जैसे ऊचाई में पहाड़ अकेला होता है और उसके अकेले साथी केवल बादल। उनमें लगाव बहुत होता है जैसे बदल हमेशा पहाड़ों से लिपटे रहते हैं। करीम और काका का संबंध भी कुछ ऐसा ही था। बाकी लोग केवल उनकी चाय पसंद किया करते। करीम उन्हें बहुत पहले से जानता था और वह हमेशा बहुत देर तक बातें किया करते। अपने सारी समस्याओं के समाधान उसे काका से ही मिलते थे। उम्र अच्छे अच्छे लोगो को सीखा देती है, फिर काका तो मंजे हुए खिलाड़ी थे। उम्र की हरेक सीडी पर गिरने उठने के कारण उनके जैसा दूसरा व्यक्ति मिलना मुश्किल था।
इस समस्या को काका अच्छी तरह जानते थे। अदीबा का शक भी सही था। अगर किसी के पति की आधी तनख्वाह उसकी पत्नी के अलावा किसी और लड़की को मिलती दुनिया की कौन पत्नी है जो एक बार सवाल जवाब तक न करे। निकाह के बाद कितनी ही बार करीम इससे बचता रहा मगर आज तो गुस्सा सिर चढ़कर बोल रहा था।
आज सच्चाई सामने आकर ही रहेगी। अदीबा आग बबूला होकर करीम के पीछे पीछे दुकान तक आ गयी। आँख का अंधा क्या करे, करीम को कुछ न सूझा और उसने काका की तरफ ऐसे देखा जैसे कहना चाहते हो "काका, अब आप ही भगवान हो, इस समस्या से कैसे भी बचा लो"
काका उसके मनोभाव समझ गए। कक्षा में ध्यान हो या न हो उम्र मनोविज्ञान सिखा ही देती है।
अदीबा का गुस्सा गरजने से पहले ही काका ने अपनी जिम्मेदारी को समझते हुए खुद ही शुरुआत की "क्या हुआ बेटा अदीबा, आज क्यों लाल पीली लगती हो"
"काका आप कुछ तो बताते नहीं, आज मैं इनसे जानकर ही रहूँगी"
"बेटा आराम से, इतनी गर्मी सही नहीं"
"काका, आज इस कहानी को में खत्म कर देना चाहती हूं, वो लड़की इनकी कौन लगती है जिसके पीछे ये इतने पैसे बर्बाद करते हैं, एक चद्दर बनवाने में जनाब की जान निकल जाती है, मेरे से अब नहीं सहा जाता"
करीम वहीं मुँह लटकाये बैठा था और जल्दी से स्थिति के ठीक होने की आस में था मगर आज स्थिति संभलने का नाम ही नहीं ले रही थी। एक बार गिरा हुआ पानी कहा रुकता है, जब तक उतनी गहराई में न पहुँच जाए जिससे अधिक जाना संभव न हो।
लेकिन काका ने ठानी थी आज कोई पहाड़ क्यों न टूट पड़े, बात उन्हें ही संभालनी है। अदीबा को उन्होंने पहले बिठाया फिर चाय दी और फिर बताने लगे।
"बेटा इतना शक ठीक नहीं, आज से बहुत पहले की बात है करीम मेरे साथ रहता था। एक दिन हम दुकान पर बैठे थे और एक छोटी बच्ची फटे हुए कपड़ों में रोते बिलखते यहाँ आ पहुँची। उसके माँ पिता नहीं थे मैंने तो जाने देने चाहा मगर करीम यह सह नहीं सका। और उसे अपने साथ ही रखने लगा तब से वह उसके साथ ही रहती और उसकी सारी पढ़ाई उसने ही कराई। तुम्हारे आने के बाद समस्या से बचने के लिए उसे हॉस्टल मैं भर्ती कर दिया। आज भी उसका खर्च वही उठाता है।"
इतना सुनकर अदीबा की आँखें खुली रह गयी। उसका हृदय प्रतिरोध करने लगा। हाय विधाता, सारे पहाड़ उनपर ही क्यों फूटते हैं जो कर्म से भले होते हैं।सारी परीक्षा उन्हें ही क्यों देनी पड़ती हैं। अगर वह भला कार्य करता है तो सबको साथ देना चाहिए क्या मेरे पड़ोसी भी इस बात को नहीं जानते थे। हाय,मैं कितनी बड़ी अभागिन हूं, ऐसे व्यक्ति पर शक करने पर अल्लाह भी मुझे माफ़ नहीं करेगा।
इतने में करीम उसे दिखाई दिया। दौड़कर गयी और ऐसे गले से चिपट गयी मानो बच्चे चिपट जाते हैं। आँखों से आँसू की धार बहने लगी। इस अदिव्य प्रेम को केवल महसूस किया जा सकता था। इसका साक्षी होना ही जीवन का श्रेष्ठ पुण्य है।