Meenakshi Suryavanshi

Others

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Meenakshi Suryavanshi

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आशातीत मां

आशातीत मां

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"हां, वह तो ठीक है चाचा जी, लेकिन आपने मानस को तो फोन नहीं किया था ना, प्लीज मानस को कुछ मत बताना वह बर्दाश्त नहीं कर पाएंगे। मैं उनको समझा बुझाकर दो-चार दिन में ले आऊंगी। 

      

सुनकर जैसे मेरा गुस्सा सातवें आसमान पर पहुंच गया और मैं समझ गया कि, मैंने फिर पूछा, तुमने पिछले चार दिनों में जो बात हुई बताया था ना मानस को ? 

     

" चाचा जी मैं बताना तो चाह रही थी लेकिन समय ही ना बना".....

"अच्छा तो ठीक है बेटा फिर यह भी मत बताना और आना ना हो तो तब भी चलेगा ,क्योंकि तुम लोग खुश रहो, यही बहुत है.... और फिर हुआ ही क्या है। परेशान मत हो, भाई साहब अग्नि दे देंगे, फिर छोटा तो है ना वह संभाल लेगा।

और हां तकलीफ की कोई बात नही, मैं मानस की कंपनी में ही फोन लगा कर बात कर लेता हूं और तुम्हें परेशान नहीं करूंगा"

"मगर चाचा जी...."


मैंने बिना देर किए मानस की कंपनी के मालिक को फोन करके उससे बात करने की गुजारिश की। तब पता चला कि उसे कोई खबर नहीं। वह तो नाराज था, घर वालों ने उससे पिछले सप्ताह से कोई बात नहीं की। जब मैंने यह कहा "तुम ही बात कर लेते। अगर उनका फोन नहीं आया तो आखिर माता-पिता है वह तुम्हारे .....

तुम्हारी भी कुछ जिम्मेदारियां है" तो, उसने बताया कि "निरुपमा ने उसे बताया कि उसकी बात निरंतर होती रहती थी और सब कुछ ठीक है, और केमिकल फैक्ट्री होने के कारण एवं मोबाइल से होने वाले एक्सीडेंट को देखकर यहां मोबाइल मना है, इसलिए घर पर ही अपना मोबाइल छोड़ कर आते हैं।"

      

मेरा मन खिन्न हो गया और मैंने गुस्से से कहा, छोड़ो यार सफाई मत दो। पिछले 4 दिनों से मां बीमार है और तुमको समय ही नहीं कि पूरे दिन में एक बार मां-बाप से बात कर लो। तुमने बात की नहीं, निरुपमा ने बताया ही नहीं, यह हां क्या हो रहा है। आखिर क्या चाहती है तुम्हारी पीढ़ी। क्या यही आजादी है या जिम्मेदारी से भागने का बहाना जैसी तुम्हारी मर्जी, लेकिन याद रखना जो सिखा रहे हो, वही मिलेगा। ज्यादा नहीं कहूंगा, गलती हो गई,अगर बुरा लगा हो तो।

      

काम की बात यह है कि पिछले 4 दिनों से भाभी बीमार थी। बहू से कहती रही बात कराने का, लेकिन शायद तुम्हें डिस्टर्ब ना हो इसलिए वह बात ना करा पाई। आज सुबह 5:30 पर उन्होंने अंतिम सांस ली। अगर थोड़ा समय हो तो बताओ हम अंतिम संस्कार के लिए इंतजार करें कि नहीं। 

निरुपमा ने तो कहा है कि तुम्हें मना कर ले आएगी तीन-चार दिन में,,उसकी तो बात मान लोगे ना, यदि ना भी आए तो भी चलेगा। वह कुछ ना बोल पाया। सिर्फ इतना रूहासे स्वर में बोला....चाचा जी आ रहा हूं, हो सके तो इंतजार करना।

        

मैंने तमतमाते हुए फोन रख दिया। शायद भाभी का दर्द और गुस्सा आज भी मेरी वाणी के रूप में उभर रहा था। इसमें दोष भाई साहब का भी था। जब भी फोन आता था उनकी शुरुआत......."हां बोलो क्या बात से होती" अब क्या समझाना कितनी बार बोला....थोड़े प्यार से भी बोल सकते हो या फिर भाभी को ही फोन उठाने दिया करो। वैसे भी वह बैठी रहती है और आप अपनी बात कर फोन रख देते हो।

       

कभी तो भाभी को देखकर पुरुष प्रधान समाज से घृणा सी आने लगती है। सोचता था कि क्या स्त्री का अस्तित्व मात्र अपनी भावनाओं को छुपाना और परिवार की सेवा करने तक ही सीमित है। बस यही हमारे विचार मेल नहीं खाते और और बहश छिड़ जाती और इसका अंत भाई साहब के इन वचनों से होता था। " हां, देवर जी ठीक है, ऐसा ही करेंगे।"..... बस याद रखिएगा कि आपके विचार से चले तो एक दिन अस्थि विसर्जन की खबर भी ना मिले.... यह उलाहना बहुओं को इंगित करते हुए देते थे जो वाकई आज सार्थक होता नजर आया। 

     

वर्तमान युग में नारी का यह स्वरूप अत्यंत चौकाने वाला लगता है। पहले पूरे परिवार को एकजुट करने वाली स्त्री ना जाने कब अपने स्वार्थ पूर्ति और कमजोरी को आजादी का नाम देकर अपनी मनमानी के लिए परिवार से अलग होती जा रही है। आज उसे ना रिश्तो की चिंता ना भविष्य का डर और जवाब सीधा साधा घर में बैठे रहने से तो होगा नहीं। 

     

आज अपने वर्तमान पर और हमारी खुद की परवरिश पर क्रोध आ रहा था। हमने ही तो बच्चों को अकेला रहना, हॉस्टल में पढ़ना, गर्व से सिखाया था और जब वह माता-पिता से ज्यादा मिनिस्ट्री तो जो पहले वार्डन किया करता था, उसकी बात पर ज्यादा भरोसा करना सीख गया। फिर हमारा पछतावा करना लाजमी नहीं है जो कभी हमारा अहंकार था। वही आज हमारे आंसुओं में झलकता है। सोचते हुए पास पड़ी आराम कुर्सी पर बैठ गया। आंखों में आंसू लिए अपने अतीत में खोता चला गया। 


कैसे जब मात्र मैं 16-17 का रहा होगा, बड़े भाई की शादी होकर जब पहली बार भाभी हमारे घर आई तो पूरा परिवार खुशियों से भरा था। तभी ठीक 15 दिनों बाद अचानक हमारी माता जी का देहांत हार्टअटैक के कारण हो गया। सारे परिवार ने भी बहू के कदम को अशुभ माने। अपने आप को हमारे परिवार से अलग कर लिया या यूं कहे कि बहाना बनाकर हम से छुटकारा पाना चाहा।

     

सबकी बातों को अनदेखा कर हम दोनों छोटे भाइयों की भाभी ना जाने कब भाभी मां बन गई, पता ही ना चला। हमें हमारी मां की तरह ही देखभाल और विचार मिले। यहां तक कि जब तक हम दोनों की शादी नहीं हुई, खुद की संतान का भी विचार ना किया। 

      

मेरे बेटे से एक महीने छोटा है मानस । पूरा परिवार संयुक्त था और बच्चे हमउम्र थे और उन सबकी लाडली "बड़ी मां".... हमारी पत्नियों ने तो जैसे जन्म ही दिया था उनको, उन दोनों को भी बड़ी बहन का प्यार मिला था। वक्त का पंख उड़ा कर चला गया। हमारे पिताजी गुजरने से पहले... बाद में कोई कलह ना हो के डर से सोचकर बटवारा करके स्वर्गवासी हो गए।

      

शायद यह उनका अनुभव रहा होगा लेकिन आंगन बच्चों के नाम ही रखा। आज भी हम एक ही आंगन और भाभी के साथ ही उनकी छोटी बहन ने (हमारी पत्नियों) की जोड़ी को नमन करते..... लेकिन दुख होता है हम यह भावनाएं अपने बच्चों को ना दे पाए। 

 चाचा जी के स्वर जैसे मुझे नींद से जगाया।देखा तो मानस का छोटा भाई रोहित खड़ा था। वह बोला क्या करें चाचा.......

पापा की हालत तो ठीक नहीं है। भाई से कुछ बात हुई क्या? मैंने बीच में ही रोकते हुए हैं, वह आ रहा है, बात हुई है। रिश्तेदारों को भी बता दो। फिर शाम में अंतिम संस्कार के लिए जाएंगे। भाई साहब को संभालो और फिर भाभी की भी तो इच्छा यही थी। बोलते हुए मेरी आंखों में आंसू आ गए जिसका वह सामना ना कर पाया और तुरंत पलट कर चला गया। मैं भी अन्य तैयारियों में जुट गया। 

      

अंततः मानस अपने अपराध बोध के साथ दुखी चेहरा उपस्थित हुआ, जिसे देखकर कुछ लोगों उसको देखकर बहुत गुस्सा आया, तो कुछ को उस पर दया आई। लेकिन अब बचा क्या था, उसके आंसू को देख कर मन भर आया और जैसे ही कहा.. बेटा है हमारा।

 संपूर्ण क्रोध भूल कर हम घाट की ओर बढ़े और अंतिम संस्कार के लिए वहां पहुंचकर किसी ने श्रद्धा, तो किसी ने भावपूर्ण होकर, तो किसी ने आत्मग्लानि और मिश्रित भाव में अपनी अंतिम विदाई दी, और इसी के साथ ताउम्र विश्वासी बने रहने की उम्मीद की जाती है उसी ने उन्हें मुखाग्नि दी। अपने अंतिम वचनों के साथ भाभी मां ने भी शायद मानस को क्षमा कर दिया होगा.....क्योंकि मां तो आखिर मां होती है। 

  

अंत में दहकती चिता के साथ मातृप्रेम ने भी अपनी आहुति प्रदान की।


 " समाप्त "



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