आदत...
आदत...
सुबह के छ: बजे हैं रोज की तरह आज भी नींद में मेरा हाथ अलार्म घड़ी की ओर बढ़ा और अलार्म के बंद होते ही नींद ने फिर से मुझे अपने आगोश में भर लिया। ये सुबह सुबह की नींद भी अजीब होती है, आपको बिस्तर से उठने नही देती पर फिर भी आसपास होने वाली सभी गतिविधियां आपको महसूस होती रहती हैं। मेरे कमरे के सामने आंगन है मां जब सुबह कपड़े सुखाती हैं तो मानो उनके झाड़ने पर छींटें अपने चेहरे पर आ पड़ते हैं। फिर पौधों को पानी डालते समय मिट्टी की सौंधी खुशबू जैसे पूरे कमरे को भर देती है। रसोई में बर्तनों की आवाज़, छौंक की खुशबू सब जैसे मेरे सपने में घुलमिल कर अपनी मौजूदगी दर्ज करते हैं। मां रोज सुबह जल्दी उठ कर काम पर लग जाती हैं । पहले कपड़े, फिर आंगन और पौधों की साफ सफाई और फिर रसोई ...मेरे जागने से पहले मानो
ज़माने भर का काम हो जाता है। मैंने कई बार सोचा कि जल्दी उठ कर मां का हाथ बटाऊंगी पर एमएनसी की नौकरी मेरा सारा उत्साह निचोड़ लेती है। सारे काम खत्म कर के मां मेरे पास आती हैं और प्यार से माथा सहला कर कहती हैं "अब उठ जा देर होगी तो मेट्रो छूट जायेगी तेरी...." और मां का वो स्पर्श मुझे सपनों की दुनिया से खींच कर यथार्थ में ले आता है। आज मां को गुज़रे दो साल होगए पर अब भी मानो अलार्म के बजने से मेरे उठने तक का ये सिलसिला ज्यों का त्यों जारी है। वो मिट्टी की खुशबू, वो बर्तनों की आवाजें, वो छौंके की खुशबू और मां का वो स्पर्श आज भी उसी प्यार से मुझे उठाता है। न जाने ये आदत मां की है मुझे उठाने की.. या मेरी जो मां के दुलार के बिना उठ ही नही पाती...
ये आदत जिसकी भी हो ये आदत मुझे बहुत प्यारी है।