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ये राहतें...

ये राहतें चाहतें आस पास बिछा ली हैं थोड़ी ख़ुदगर्ज़ी की आदतें बना ली हैं सुकून को तलाशना छोड़ दिया है मैनें ख़ामोशी को सहेली बना ली है, ख़ामोशी की भी अपनी ही ज़बान है बंद लफ़्ज़ों की ये अनकही दास्तान है हर लफ्ज़ वक़त के तारों से सिला हुआ है बंद होठों की मगर ये कारीगरी बेमिसाल है.

By Nitu Mathur
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