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निशा बनती संगिनी मेरी
दुःख में मन सम्भलता कि चाँद बैरी
निकल आया पूनों का।
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मिलन की रात जब आई चली ख़ूब पुरवाई।बादलों ने भी घेरा डाला ,बैरी चन्दा भी मुख मोड़ गया।
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दिल में उम्मीद का दिया जलाए हैं बैठे।
दूज का चाँद बैरी -सा आया और तुरंत लुप्त हो गया।
**सत्यवती मौर्य
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