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जीवन में हमारे कर्म, आचरण, वचन या लेखन, ‘मैं’ के अहं एवं परनिंदा की ‘दृष्टि’ से अधिक से अधिक मुक्त रहें, यह प्रयत्न होने चाहिए।
अगर ऐसा नहीं कर सकें हैं तब भी कम से कम वृद्ध होने तक तो हमें यह कर ही लेना चाहिए
ताकि जो विरासत हम छोड़ें वह पीढ़ियों के लिए भली सिद्ध हो
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