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चलन से प्रभावित होकर हम भ्रम कारणों में जीना, जीवन का अभिप्राय समझने लगते हैं।
जीवन संध्या में पहुँच कर हमें संतोष तभी होता है जबकि हमने भ्रम कारणों को अपने से दूर रखा होता है।
हमें जीवन के सार्थक कारणों को युवावस्था में समझने की जरूरत होती है।
वे कारण जिनमें जीते हुए, ‘स्वहित’ एवं ‘परहित’ (तराजू की) दो तुलाओं में संतुलन होता है, जीने के, भ्रम कारण नहीं होते हैं।
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