ज़मीर-ओ-ईमान
ज़मीर-ओ-ईमान
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किसी वृक्ष के तने की तरह
अँकुओं की तरह फूटती हैं तमाम राहें
राहों से, जैसे
बुला रहा हो मुझे कोई
अपनी फैली हुई लंबी बाहों से।
बढ़ते रहते हैं मेरे कदम
अपनी मंज़िल की ओर
बिना रुके, कभी नहीं चाहता हूँ
ख़ुद से किए हुए वायदों को तोड़ना
नहीं क़बूल है कि किसी ख़ुद्दार का सिर झुके।
ज़मीर और ईमान का सौदा करने का
फायदा क्या है
बड़ी मुश्किल से थोड़ा-थोड़ा
समझ सका हूँ ज़िंदगी जीने का कायदा क्या है !
