वक्त
वक्त
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क्या खूब किसी ने कहा है,
वक्त लफ़्ज़ों से बनाई चादर है।
पर आज ऐसा क्यों लग रहा है,
मानो ये चादर हाथों से
फिसलती जा रही है।
मानो शारीर यहाँ है
और जान जा चुकी है।
क्यों लग रहा है कि कोई
मेरे इस शरीर को
शव समझ जलाने वाला है।
लग रहा है मानो कि
मन में उठा तपिश आज
मुझे अपने साथ अपनी ताप मे
जलाने वाला है।
आज क्यों लग रहा है कि
मेरे हर सवालों का जवाब
मुझे उस आग की ताप में
मिलने वाला है।
मानो जिस डर के दामन में
ज़िन्दगी गुज़ारी उसका अंत होने वाला है।
फिर क्यों डर रही हूँ मैं
दर-बदर भटक रही हूँ मैं।
कैसे बताऊँ अपने इस डर का सच कि
मैं मौत से नहीं खुद से डर रही हूँ मैं।।