विषकन्या
विषकन्या
उलझकर स्वयं रह जाता है मनुष्य हर दफा,
हूँ मैं तो ऐसी ही एक संगीन पहेली,
विनाश की रासलीला में भला क्या मजा, जनहित के हर कार्य के लिए प्रस्तुत है मेरी हथेली।
कागज़ की पतली सी आवरण में लिपटी हुई हूँ मैं,
चंद पलों की होती है मेरी ज़िंदगानी,
साक्षरता का जल ग्रहण किये मनुष्य
मेरा वरण करके क्यों कर लेते हो अपनी ही हानि?
सजीव करके मुझे एक चिंगारी से तुम, सोचते हो कि काश! ये मेरे साथ रहे,
जब तसव्वुर करते हो मेरे विषय में तुम,
ग्रास बना ले चूका होता है तुम्हे मेरा मोहपाश।
ख़ुशी के शिखर पर पंहुचा देती हूँ व्यक्ति को, जब विलीन होती है उसकी मेरे सांस में सांस,
शिक्षित होकर भी अबोध कहलाता है व्यक्ति, जो स्वीकार करे मेरे धूम्र का सदा के लिए कारावास।
धुएं के स्वरुप में, रक्त वाहिनियों के जरिये, दिल में उतरकर करती हूँ तुम्हारा ही विचारमंथन,
स्वीकार करके मेरा न्योता, बिखेरते है अनेक बंधन, टूट जाते सात जन्मों के अटूट गठबंधन।
खिंचाव तुम्हारा मेरी ओर,
देता है गृहस्थी के कचहरी में,
तुम्हारे ही विवशता कि गवाही,
चुरा ले जाती हूँ हर बारी ग्यारह मिनट तुम्हारे,
क्षीण करके तुम्हारे समय की सुराही।
जब शरीर और मन शुद्ध होता है,
तभी इंसान मार सकता है कामयाबी की ऊँची छलांग,
तो क्यों करके शरीक मुझे अपने जीवन में तुम बना लेते हो अपनी ही ज़िन्दगी को विकलांग?
साकेत एकटाटे