उत्स का क्षण
उत्स का क्षण

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सर्द हवा थी
हर तरफ बर्फ ही बर्फ
लिहाफ़ को छोड़कर
बाहर टहलने के बहाने से निकल गए थे
कुछ मेरे अहसास
पछुवा हवा चली बरसों के बाद
झील में पड़ी काई को
कंकड़ से नही हटाया गया
कहीं बेवजह लहरों की नींद न टूट जाये
बारिश फिर तेज हुई
दादुर मोर सब बोलने लगे
उनकी तन्द्रा टूटी तो मिलकर पुकारने लगे
बस फिर किसी ने काई को छेड़ दिया
काई
कहने लगी खोई वस्तु को खोजने में इतना वक्त नही लगाते
हम आदमी की तरह जिंदगी भर किसी का इंतज़ार नही करती
लहरें
कहने लगी की किनारे लगा देती तुम्हारी कश्ती
हम नाखुदा को नहीं ढूंढती
अब भविष्य में जिस्म की गर्मी अहसासों को देना मत भूलना
रिश्तों की झील से काई छट गई
और मैं लहरों के बाहुपाश में जकड गयी