सज़ा: ख़ुद को या सब को?
सज़ा: ख़ुद को या सब को?

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जो सज़ा मुजरिमों को मिलती है
वो उसने दे दी थी ख़ुद को
आखिर किस गुनाह के लिए
ख़ुद को कोसता था
वो खुश था एक दिन पहले तक तो
रंगों से पूरा दिन खेलता था
ऐसा हुआ क्या उस पल में
कि दुनिया इतनी बदल गई
कि हँसी उसकी शांत लम्हों में बदल गई
वो बन सकता था रंगों की दुनिया का राजा
पैसा और नाम उससे कमा सकता था वो
अरे क्या ज़रूरत थी कायरता दिखाने की
कुछ अंकों के लिए ज़िन्दगी गवाने की
एक बार अपनी बनाई
कलाकृतियों को देखा होता
खुद पर ना सही उनकी ख़ूबसूरती पर
भरोसा किया होता
अरे मछली नहीं है उड़ती आकाश में
परिंदे समंदर की गहराई नाप नहीं सकते
अरे वो था सबसे अलग
उससे प्यार करते थे हम सब
आज कमी है उसकी खलती
पर उसने तो ज़िन्दगी ही खत्म कर दी
काश वो होता
पास में बैठ चाहे दिन भर रोता
चिल्लाता कोसता ख़ुद को
पर ये कैसी सज़ा दे गया है सबको