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Sandeep Rebari

Others

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Sandeep Rebari

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संघर्ष

संघर्ष

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ए जिंदगी किस राह पर 

ले आई है तू मुझे,

इन दफ्तर के गलियारों में

ढूंढूं किसी और को नहीं सिर्फ तुझे।


यह राह है धुंधली और 

मंजिल भी है बेहद दूर 

अब तो इस खूबसूरत चेहरे से 

छटने लगा है नूर।


रोज नए दिन नए सवेरे की 

उम्मीद में उठता हूं 

मगर उम्मीद टूटने पर

होकर काफी खफा इस जिंदगी से

रात को मैं भी अपने बिस्तर पर

सूरज की तरह ही छिपता हूं।


गुम हो चुकी है वह मासूमियत

गुम हो चुका है वह बचपना, 

छिप गई है वह हंसी कहीं

इस भविष्य के सपने को सजाने में 

अब जिंदगी की यह गाड़ी भी

किसी अनजान जगह जा है फंसी,

क्या लौटेगी वो हंसी?

जो मेरी खुशी का प्रतीक थी ।


बेहतर जिंदगी की तलाश में

शहर से शहर बदलते, 

अपने आप को खोने लगा हूं मैं 

अब ढूंढ रहा हूं उसी पुराने

हंसते हुए मस्त मौला इंसान को

जिंदगी तेरे यह गम भुलाने।


कल फिर उठूंगा किस उम्मीद में ?

हां ,उसी नए सवेरे की उम्मीद में,

ए जिंदगी मुश्किल है यह सफर,  

मगर इस सफर के जुझारूपन ने 

जिंदगी जीना सिखा दिया,

खुशी के मौके पर जाम पीना सिखा दिया,

अब मंजिल से दूरी होने लगी है कम,

और धीरे-धीरे हम भी भुलाने लगे हैं गम।


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