पहाड़
पहाड़
तुम पहाड़ हो
तुम्हारी ऊंचाई
तुम्हारी सख़्ती
तुम्हारा बीहड़पन
तुम्हारी ज़िद
यूं ही नहीं कायम
एक लंबा इतिहास
तुम्हारी इस नींव में दफ़न है ।
तुम बड़े कोमल थे
सूरज की धूप
मूसलाधार बारिश को
ठंड की कंपकंपी को
समय के थपेड़ों को
तुमने भी महसूस किया था
अपने बदन पर।
तुम भी छाँव पाते थे
अपने पेड़ो से
उनकी डालियों से
जड़ों ने उनकी
तुम्हें बांध रखा था
बचा रखा था
टूट कर बिखरने से।
पाकर सानिध्य की छाया
तुम बड़े होते गए
इतने बड़े
कि तुम्हें महसूस ही नहीं हुआ
वे कब बौने हो गए?
तुम्हारी नज़र ऊंची हो गई
आसपास देखने को सिर
झुक नहीं पाया
तुम दूर किसी लंबी गुफा को
लहराती नदी को देखते रहे
मुग्ध हो गए थे उसकी लचक पे
तुम स्पर्धा करने लगे आकाश की।
पेड़ बूढ़े हो गए
शिथिल हो गई उनकी टहनियाँ
सूख गई जड़े
झड़ गए पत्ते
वे ठूंठ हो गए ।
तुमने कोशिश की
उन्हें हरा करने की
पानी देने की
छाया देने की
पर समय बीत चुका था
नहीं हो पाए सफल
उनकी छाया तुमसे हटती गई ।
तुम जूझने लगे
सीधी धूप, बारिश, ठंड से
करने लगे दो - दो हाथ
समय के थपेड़ों से।
इस संघर्ष में तुम
अकेले लड़ते रहे
सूखते रहे, जूझते रहे
सख़्त बनते गए।
अपने भीतर तुमने भी
छुपाया था नन्ही - नन्ही
बूंदों को
पर एक दिन
वें नदिया बनकर बह निकली
तुम्हें छोड़।
बहीं इतने वेग से
तुम समेट नहीं पाए उन्हें
कमान से छूटी
तीर की तरह।
वे तुमसे दूर होती गई
इतनी दूर
तुम देख भी नहीं पाते हो
बूढ़े कंधे झुका कर
कलपते हो उनकी यादों में।
पर गर्मियों में
सूरज की धूप से कुम्हलाई
ठंड से ठिठुरती
संतानों के स्मरण मात्र से
पिघला देते हो
अपने हृदय को
अपने रक्त को।
वात्सल्य से सींचने
लगते हो
उनके सूखेपन को
यह जानकर भी
कि अब वे तुम तक
नहीं आएंगे
उनका हरापन नहीं
आएगा काम
तुम्हारे बुढ़ापे के
तुम लुटाते हो अपना सर्वस्व
क्योंकि पहाड़ हो तुम !
विशाल, कठोर, उदार !
