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Hardik Srivastava

Others

1.0  

Hardik Srivastava

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मुसाफ़िर

मुसाफ़िर

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चाहत की चादर लपेटे,

एक मुसाफ़िर, सफ़र तय किए जा रहा है।

दूर कहीं सूरज मिलेगा,

शायद इसीलिए चला जा रहा है।

चलो पूछ लेते हैं उससे,

कि मंज़िल का अता-पता है कि नहीं,

क्योंकि सूरज हमको तो कहीं दिखा नहीं।

वो मुस्कुरा कर जवाब देता है, 

  

ये नज़रों नज़रों का खेल है, यारा

जो तुझे अंधियारा दिखता है,

वो‌ एक घर्षण मुझ में करता है,

बह रहे रक्त की धारा तेज़ करता है,

मेरे आँखों की पुतलियों में,

ज्वाला वो उत्पन्न करता है।


अब कहीं एक जगह नहीं है मंज़िल,

हर जगह ‌सूरज दिखता है।

आँखों में तपिश लिए,

एक मुसाफ़िर सफ़र तय किए जा रहा है

खुद बन गया जो सूरज,

ख़ुदा कहलाया जा‌ रहा है।।


  








   


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