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Furhut Parween

Others

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Furhut Parween

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मेरी गूँज

मेरी गूँज

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विक्षिप्त अनर्गल करती हूँ बक-बक,

अपना दुःख जब नहीं किसी से सुनाया जाता है।

मुझे समझ एक उपेक्षित वस्तु,

नहीं साथ किसी के बिठाया जाता है।


मेरा दुःख सुनने का नहीं है साहस, तुमसे

दो-पल नहीं साथ मेरे बिताया जाता है।

निर्झर बहते आँसू मेरे, जग जाती हूँ रोज सवेरे,

चाहूँ जितना भी, जब मुझसे नहीं सोया जाता है।


लाख समेटे तूफानों को हृदय में,

‘माँ हूँ मैं’- बच्चों के आगे नहीं रोया जाता है।

निपट घर-भर के सारे काम-काज,

सोचूँ दो-पल जो मैं बैठूँ, तो

देख घर के बड़े-बूढ़ों को,

सेवा से जी नहीं चुऱाया जाता है।


सौंप दिया तन-मन-धन सब तुमको,

कभी न जिसका हिसाब लगाया जाता है।

टूटते रिश्तों के बीच, अब मेरे

सपनों का महल नहीं सजाया जाता है।


मैं रहती हूँ तत्पर सदा, अपने सातों वचन निभाने में।

तुम कैसे हो पालनहार?

रहे विफल जो घर को घर बनाने में।

अर्धांगिनी बन सहती रही, तेरी हर मनमानी को।

शरीर पे बढ़ते नीले धब्बों को, अब नहीं मिटाया जाता है।


सह लेती मैं लाख विपत्ति,

प्रियतम होता जो साथ तुम्हारा।

भूलूँ कैसे अंतर्मन की असीम पीड़ा,

खुश रहने का स्वांग अब नहीं रचाया जाता है।


तुम भी तो बने हाड़-माँस से,

समझ मुझे एक तुच्छ स्त्री, कैसे तुमसे सताया जाता है?

मेरे बढ़ने से कैसे घटता मान तुम्हारा? 

बाँध मुझे रसोई के खूँटे में,

क्यों मेरी औकात बतलाया जाता है?


तुम बनते हो घर के स्वामी,

मुझे क्यों सेवक बनाया जाता है?

सिमट रह जाती हूँ, तुम्हारी परिधि में।

मेरी परिधि का दायरा, तुमसे नहीं बढ़ाया जाता है।


‘मैं हूँ नारी’- नहीं एक निर्जीव वस्तु,

बन बंदिनी मुझसे अब, गृह-शोभा नहीं बढ़ाया जाता है।

तुम कर पाते लाख गलतियाँ,

मेरी एक छोटी गलती भी, तुमसे नहीं भुलाया जाता है।


बुनके कुटिल ताना-बाना,

ये कैसा चक्रव्यूह रचाया जाता है?

तुम बनते हो घर के राजा,

मुझे पाई-पाई का मोहताज बनाया जाता है।

करूँ श्रृंगार, बनूँ ‘सावित्री’बचपन से,

हमें निभाना ‘पत्नी-धर्म’ सिखलाया जाता है।

नहीं रहता कुछ मोल हमारा,

तुम्हें परमेश्वर बनाया जाता है।


‘लोग कहेंगे क्या’- ये सोच,

घुट-घुटकर रहती हूँ।

चिखती-चिल्लाती हूँ अवसादों से,

जब मुझे बार-बार रूलाया जाता है।

पर रोज बढती तुम्हारी निर्ममता को,

अब नहीं छिपाया जाता है।

भर जाऊँ निस्सीम अवसादों से,

आत्महत्या के लिए कदम उठाती हूँ।

नहीं मरी तो रोज मुझे,

तिल-तिल कर क्यों जलाया जाता है?


कभी किया था प्रेम जो तुमसे,

‘तुम तब थे मेरे’- सत्य,

नहीं भुलाया जताया जाता है।

अब तो अपनी करनी पर,

खुलकर भी नहीं पछताया जाता है।

गिरते हो तुम मेरी नजरों में रोज,

अब और नहीं उठाया जाता है।

सबकुछ अपना अर्पित करके भी,

अपना स्वाभिमान तो नहीं भुलाया जाता है।


निकल आती है चीख, मेरी गूँज बन कर।

लाख चाहूँ पर, जब मौन नहीं रहा जाता है।

कुछ बनने की जिजीविषा में,

सही-गलत की छोड़ भवबाधा,

कर लो तुम अब लाख जतन,

अपनी अस्मिता को नहीं भुलाया जाता है।


बिना कहे-किए कुछ, अब न मरना आसान है।

‘जिओ अपनी शर्तों पे’- नारी, तभी तुम्हारा सम्मान है।

स्त्री तुम एक ऐसी ‘शक्ति’ हो,

जो सीधे यमराज से टकराती है।

बन दामिनी अशेष अंधेरे नभ में,

अपनी चमक से विशाल गर्जन बन जाती है।


जग गया अब अभिमान है मेरा,

हर अत्याचार के विरूद्ध आवाज उठाना है।

सात पर्वतों से टकराकर,

अब मुझे गूँज बन जाना है।


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