मेरे देश की सीता
मेरे देश की सीता
उस रात अचानक ख्याल आया,
क्या मेरा वही देश है,
जिसमें कभी सीता रहती थी?
क्या ये सीता भी दिल्ली में तो नहीं
रहती थी,डरी हुई, सहमी सी
मन में कटु अनुभव लिए?
अपने राम को ढूंढती हुई,
अपनी क्षत-विक्षत काया
उसे दिखाने के लिए,
अपने नुचे हुए उरोजों पर
फटी साड़ी धारण किए।
आज सीता अकेली पड़ गई
हनुमान डरे हुए पत्थर में समा गए
कौन ढूंढेगा उसके राम को?
आखिर कौन?
सरकार तो कहती है
राम पैदा ही नहीं हुए,
हुए भी तो,भारत देश में
कभी नहीं आए।
फिर कहां गए हैं वो ?
कहीं उनका हृदय बदल तो नहीं गया?
क्यों आईं ये अभागी,अकेली,
इन रावणों के बीच,
अपने तन मन का नाश कराने
जल क्यों नहीं गई
उसी अग्नि में,
अपने दामन के दाग मिटाते।
सीता की विरल चीख सुनकर
राम को आना होगा।
क्यों ना मैं ही बन जाऊं राम,
उठा लूं वही धनुष, वही तीर,
बन जाऊं काल की तरह,
चला दूं तीर नाभि में
जला दूं सभी दानवों को,
हरेक रावण का कर दूं विनाश,
जिन्होंने ये घृणित काम किया है।
तभी
उस अंधरे में आत्म तल से आवाज़ आई,
अरे बस करो, बहुत हुआ,
उस सीता ने तुम्हारा ही नाम लिया है।
