लाल सवारी
लाल सवारी
हर महीने
दोहरा दर्द होता है
एक इसके आने का,
दूसरा इसे छिपाने का।
पूरा फर्श हुआ था लाल
ये था मेरा 12वा साल,
जब पहली बार था ये हुआ
माँ ने मुस्कुराते हुए
था गाल छुआ।
कहा पगली!
तू खुशी के आँसू
रो सकती है,
तू बच्ची, अधूरी थी
अब पूरी हो सकती है।
ये लाल रथ की सवारी
अब हर महीने आती है,
पेट दर्द तोड़ के मुझ को
स्वागत के गीत गाती है,
माँ अब मुस्कुराती नहीं
जल्दी से
मुझे चुप कराती है,
किसी से ना बताना
ना जाने
क्यों सिखलाती है।
मैं भी सीख गई हूँ
चुप रहना,
दोहरे दर्द को सहना
बिस्तर के चादर को दर्द से,
अपने में समा लेना चाहती हूँ
राहत जब मिले
खाना भी,
पका लेना चाहती हूँ।
मुझे सबके माथे पर
चंदन लगाना,
छोड़ना पड़ता है।
किसी के
शरीर को ना छू लूँ ,
स्वयं को
झकझोड़ना पड़ता है।
मैं बंद ही हो जाती हूँ
चार दिवारी में,
क्या कोई गुनाह है
इस लाल सवारी में ?
इसके आने से ज़्यादा,
अब जाने का
इंतज़ार करती हूँ,
मैं दोहरे दर्द से
डरती हूँ,
लड़ती हूँ,
ऐसा हर बार करती हूँ।।