क्या तुम समझते हो ?
क्या तुम समझते हो ?
क्या तुम समझते हो ?
उस दिन के उजालों मे भी मेरा बेख़ौफ न चल पाना ,
भीड़ भरी इन सड़को पर गुजरती हुई इन राहों पर ,
कोई शख्स मेरे जिस्म को , न छु जाए ,
इस बात से मन ही मन घबराना ,
क्या तुम समझते हो ?
क्या तुम समझते हो
मेरा दर्द?अरे! जिस्मानी नहीं रूहानी है,
यह न जिस्मों पे दिखती है,न आँखों से बहती है ,
न होंठो से कहती है ,
बस जिस्म के किसी कोने में पड़ी तड़पती सी रहती है ,
पर क्या यह बाते क्या तुम समझते हो ?
क्या तुम समझते हो ?
किसी अनजान शख्स का ,
उन रास्तों से गुजरते मेरे जिस्म को ताकना ,
मेरे जिस्म के हर कोने को अपनी आँखों से नापना ,
और इन सब को देख मेरे जिस्म के ज़र्रे ज़र्रे का काँपना ,
शर्म से भरी इन आँखों को थामना
क्या तुम समझते हो ?
क्या तुम समझते हो
रात के उस अँधेरे में ,
चाँद की उस रोशनी में ,
लौट रही वापस घर को ,
उन सुनसान रास्तों में ,
पल भर को सहम सी जाती हूँ ,
अपने आपको इन अनहोनी से रोकती हूँ ,
पर क्या तुम मेरी बातों को हकीक़त मेे समझते हो ,
क्या तुम समझते हो !
क्या तुम समझते हो ?
हर रात अपने कमरे के किसी कोने मे बैठे ,
उन गुजरते पलों को याद कर आँखों से बस आंसू बह जाते हैं ,
होंठो की मुस्कुराहटों के पीछे छुपे दर्द चीख बनकर निकल जाते हैं ,
पर फिर हर दिन यही सहन है यह सोच कर हम इन आंसुओ को रोक नहीं पाते हैं ,
पर क्या फायदा इन बातों का
क्या तुम समझते हो !!