हमारी प्रतिष्ठा
हमारी प्रतिष्ठा
हमारे घर की रौनक थी
सुबह उठती थी
पांव छू कर
स्कूल जाती थी
हमारी "प्रतिष्ठा"
कक्षा तीसरी में ही थी
सीख रही थी लिखना पढ़ना
जमा, भाग, गुणा करना
खेलना उसको ख़ूब पसंद था
कभी गुड़िया को सजाना
कभी ख़ुद संवरना
उसने 'ब' से बत्तख़, बकरी, बस,
कई शब्द सुने थे
मगर 'ब' से बलात्कार जैसा भी
एक घिनौना शब्द होता है
इससे वो अन्जान थी
वो एकदम नादान थी
पुष्प सी कोमल
मात्र 7 बरस की नन्हीं जान थी
खाना मनपसंद बनवाती थी
फिर भी कम ही खाती थी
वो किताबों से भरा बस्ता भी
सही से उठा नहीं पाती थी
एक विचार ने
मुझे अंदर तक झकझोर डाला
कैसे झेला होगा उसने
उस दरिन्दे के वहशीपन का भार
पहले सवाल पूछ-पूछ कर
परेशान कर देती थी
पर अब दशा ये है
वो कोई जवाब नहीं देती
उसे गुदगुदी करके
ख़ूब हँसाना चाहता हूँ
मगर उसके घाव देखकर
मेरे हाथों की जैसे जान निकल जाती है
शरीर पर कपड़ों की जगह पट्टियाँ है
टूटी हुई उसकी हड्डियाँ है
मन में रह-रह कर एक ही प्रश्न उठता है
क्या यही हमारी "प्रतिष्ठा" है?