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Gangesh Shukla

Others

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Gangesh Shukla

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ढलती हुई शाम

ढलती हुई शाम

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रोशनी की चकाचौंद में शाम ढल गई,

रोशनी को झकझोरते हुए,

बादलों से झकते-झकते देखो वो उजाले की नाव कहीं शुमार हो गई,

देखो ये रोशनी शाम के आगे कुर्बान हो गई,

खूबसूरत हवाएं उस रोशनी को छूते हुए निकल जाती हैं,

अक्सर आते जाते उससे सताती है,

कहीं बादलों से छुपा कर, कहीं मेग रूप में बहा कर ये रोशनी फिर भी आ जाती है,

पर ढलती हुई शामो के साथ ये रोशनी हर रोज़ कहीं खो जाती है।


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