मुसाफ़िर और मंजिल
मुसाफ़िर और मंजिल


ऐसे देखा जाए तो, जिदंगी की सफ़र में हर कोई मुसाफ़िर है और मंजिल भी हर किसी का इंतज़ार करती है।
मुसाफ़िर हम खानाबदोश बनकर होते हैं या फिर सोच के पंख लगाकर!
अब दोस्ती को ही ले लीजिए, यहाँ दोस्त मुसाफ़िर और दोस्ती मंजिल।
इस पर मुझे मेरी जिदंगी से जुड़ा,छोटा सा मगर बहुत ही प्यारा सा सफ़र याद आ गया।
सफ़र धुंधला सा है, दोस्त प्यारी सी और मंजिल आज भी मेरे साथ हमसफ़र बनकर चल रही है। बातें अजीब सी लगेंगी ज़रूर, पर बातों पे मत जाइए,सफ़र बड़ा ही सुहाना सा था!
मैं शायद छठवीं कक्षा में थी। अर्ध वार्षिकी परीक्षा के बाद, उसने हमारे विद्यालय में दाखिला लिया। उसके पिताजी केन्द्रीय रिजर्व पुलिस बल में कार्यरत थे। इसलिए अपने तबादले के साथ,बच्चों के विद्यालय भी बदलता रहते थे।
चलो! तबादला भी नये सफ़र की शुरुआत है।
मेरा सफ़र उसके कक्षा में घुसते ही, निर्धारित हो गया था। वो अपने पिताजी और भइया के साथ आई थी। नाम भी प्यारा सा था, "निधिया मरियम ",केरल राज्य कि रहने वाली थी।
गोरा रंग, गोल चेहरा, माथे पर छोटी सी बिंदी,गले में ईसा मसीह का लाकेट पतली सी चाँदी की चेन में लगा हुआ, शारीरिक गठन पूरा डील डोल गुड़िया जैसी मगर बातें सीधी और कड़वी।
उसकी बातों में कड़वाहट इसलिए था, कयोंकि वो हर बात को बिना किसी रस और श्रृंगार के बोलती थी। दिल से सच्ची थी,और इस बात का एहसास मुझे हमारे आखरी मुलाक़ात के दिन मेहसूस हुआ।
उसके साथ दोस्ती का सफ़र, शुरुआती दौर में उतना दिलचस्प न रहा। उसके साथ सफ़र ना तो कभी रोमांचकारी हो पाया और ना ही इतना मज़ेदार,कि हम कभी खुलकर हँसे भी होंगे एक साथ!
हाँ! मैं इतनी बदमाश ज़रूर थी कि, उसकी टांग खिंचाई करती थी,मुँह पर उसके अनाफ शनाफ बक देती थी और उसके पीछे उसकी नकल कर हंसती भी थी।
अब यह सब बचपन में कौन नहीं करता? बहुत ही आम बात है! परन्तु उसे पसंद न था!
वो मुझे बुलाकर मेरे सारे व्यंगों पर पानी फेर देती थी, अपनी कड़वी और सीधी बातों से। चलो! दोस्ती में यह भी सही।
एक बार क्या हुआ, कि वो पूरे एक हफ्ते विद्यालय नहीं आई।
पहला दिन, मेरा जैसे तैसे निकल गया।
दूसरे दिन, मुझे लगा की मेरे मज़ाक करने को लेकर वो रूठ कर विद्यालय नहीं आ रही है!
मैंने इस बात का जिक्र अपनी माँ से किया। माँ ने बड़े धैर्य के साथ मेरी सारी बातें सुनने के बाद कहा कि, "ये तो बेटा, तुमने बड़ा ग़लत किया।"
मैं- वो इतना कड़वा बोलती है कि, एक तो सुनने में मज़ा नहीं आता और दूसरा, उससे बात करते मन नहीं बनता।
माँ- शायद बेटे,तुमने उसके मन को नहीं टटोला! वो,शायद उतनी बुरी नहीं,जितना तुम सोचती हो। वरना वो तुम्हारी गलतियों का एहसास पूरी कक्षा के आगे करती! लेकिन उसने क्या ऐसा कुछ किया? नहीं ना!
माँ की बात सुनने के बाद, मुझे शर्मिंदगी मेहसूस हुई।
नये हफ्ते के पहले दिन ही, प्रार्थना के लिए जाते समय मैंने निधिया को देखा विद्यालय के अंदर प्रवेश करते हुए। मेरा मन खिल उठा उसे देखते ही!
मैंने मुस्कुरा कर उसे सुप्रभात कहा,उसने भी पलटकर अपने अंदाज में जवाब दिया। उसे उस दिन देखकर,मेरी खुशी का ठिकाना न रहा! मानो जैसे दोस्ती का मतलब मिल गया या फिर इंसानियत का जज़्बा।
प्रार्थना खत्म होते ही, मैं कक्षा में प्रवेश कर सीधा उसके पास गई और माफ़ी मांगी।उसने बदले में मुझसे पिछले हफ्ते कि पढ़ाई के बारे में पूछा और मेरी काॅपियाँ अपने साथ घर लेने का निवेदन किया। मैंने भी झट से हाँ कह दी, फिर क्या!
सफ़र सुहाना बनाने की कोशिश में, हम रोज़ बातें करने लगे, एक साथ एक ही बेंच पर बैठने लगे।
यह सिलसिला अच्छा चल ही रहा था कि, वार्षिक परीक्षा कि सूचना के साथ साथ निधिया के पिताजी के तबादले की खबर भी आ गई। अब क्या?
बस वार्षिक परीक्षा खत्म होने कि देर थी,उसकी माँ ने सारा सामान समेट लिया था। वैसे ज़्यादा कुछ सामान नहीं था।
अंतिम पर्चे कि समाप्ति पर वो मुझे अपने घर ले गई। अपने घरवालों से मिलाया और पता है!,अपनी ओर से मेरे घर आने का न्यौता भी ले लिया!
उस उसके बिना मतलब की दोस्ती का एहसास हुआ।
अगले दिन रविवार था,उसके ठीक दूसरे दिन उनको निकलना था।
मैं अपनी छोटी बहन के साथ बैठकर दूरदर्शन देख रही थी।
सुबह के ग्यारह बजे, अचानक! घंटी बजी,खिड़की से झाँक कर देखा तो नीचे निधिया खड़ी थी।
मैं झटपट सीढ़ी से उतरी और उसको घर ले आई। वो मेरे घरवालों से मिली और बताया कि, उसके पिताजी का तबादला 'तूतीकोरिन',जो तमिलनाड़ु राज्य में स्थित है, वहाँ हुआ है। उसने मुझे एटलस में भी दिखाया!
माँ ने उसको केक दिया खाने को, जो कि उनहोंने चुपके से बनाया था और हमें भनक भी नहीं लगने दीं। अगर हमें थोड़ी सी भी भनक होती,तो निधिया को देने पहले सफाचट हो चुका होता!
उस दिन हमारी आखरी मुलाक़ात थी,उसकी आँखो में आँसू थे। जाते जाते उसने मुझे गले लगाया, हाथ मिलाया और पीछे मुड़कर हल्की सी मुस्कान के साथ मेरे अश्रु भरे नयन से ओझल हो गई।
उस दिन लगा कि, दोस्ती का एहसास हि मंजिल है गर तहे दिल से मेहसूस करो तो।
अभिप्राय यह है कि-
दोस्त मुसाफ़िर होते हैं और बिना किसी स्वार्थ के निभाई गई दोस्ती के सच्चे मायने,मंजिल! गर ठीक वास्ता हो सच्चे दिलवाले दोस्त से तो, मंजिल हमेशा हमसफ़र बन,हाथ थामे रहेगी।