क्या वाकई अंत में सब ठीक हो जाता है?
क्या वाकई अंत में सब ठीक हो जाता है?


क्या वाकई अंत में सब ठीक हो जाता है....
मृत्यु शैय्या पर लेटा व्यक्ति आराम से मर पाता है, क्या मरना इतना आसान है...??
क्या मरने से ठीक पहले उसे याद नहीं आती अपनों की, रिश्तों की, और उन छोटे छोटे लम्हों की जो उसने खुशी खुशी बिताए थे अपने के संग...
क्या याद नहीं आता उसे अपनी जिंदगी का वो हर छोटा बड़ा किस्सा जिसमें वो खुल के हंसा था, जिसमें कुछ जाने कुछ अनजाने उसके अपने बने थे।।
क्या मरने से पहले याद नहीं आते उसे वो रिश्ते जो उसके मरने से पहले ही मर गए थे उसके लिए...?
क्या याद नहीं आता उसे अपना घर जहां उसने अपने जीवन के कितने वर्ष गुजार दिए
या याद नहीं आता उसे अपनी मां पिता की गोद या गलती करने पर उनकी दी हुई डांट...
क्या याद नहीं आता उसे वो बाग का आम का पेड़ जिस पर पड़े झूले पर ना जाने ही उसने दोस्तों संग मस्ती की थी...
क्या मरने से पहले उसे याद नहीं आती वो जिम्मेदारियां जो वो निभाते निभाते अपनों से ही दूर हो गया...
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या उसे लगता नहीं कि काश कुछ वक्त और मिल जाता वो मांग लेता माफी उनसे जिनका दिल दुखाया है उसने...
क्या मरने से ठीक पहले नहीं चाहता वो देखना चाहता वो अपने सपनों को पूरा होते हुए जो रह गए थे अधूरे जिम्मेदारियों के बोझ तले...
क्या मरने से ठीक पहले वो नहीं चाहता अपने अंतिम समय में अपनों को साथ,
उन्हें जीभर के देखना अंतिम बार और उनसे की हुई बातें जो कभी खत्म ही ना हों,
वो उन अंतिम पलों में जीना चाहता है वो जिंदगी को कभी वो जी ही ना पाया शायद....
फिर उसे चिंता सताती है अपनों की,
कि अब उनका साथ छूट जाएगा जिनके साथ था अब तक उनको अकेला छोड़ जाएगा,
अब नम होने लगती है उसकी आंखें, क्योंकि वो अब अपनों को कभी ना देख पाएगा....
चिता पर लेटा मनुष्य भी चिंता में होता है और अंतः चिता ही शेष रह जाती है...
वो छोड़ जाता है तमाम उन सवालों को जिनके उत्तर उसे कभी ना मिले...
क्या वाकई अंत में सब ठीक हो जाता है?????