जल रहे कही मकान, जल रही कही अस्मत, धुंआ धुंआ है धरती, और धुंआ धुंआ है आसमां।। जीवन की आश अब लगती है जैसे मरुभूमि में प्यास, शिकारी डेरा डाले है गली गली, नोचने को मांस क्या करेगा मनुज हृदय जब रुकने को है सांस।।
आपकी हसी हमे कुछ याद दिला जाती हैं, गुजरे जमाने का वो अहसाह दिला जाती हैं।। कभी गलियों से जब , हम निकला करते थे, आपके ही चर्चे हुआ करते थे।। वही ताज़गी, वही कसिस और वही भोलापन, तन सिकुड़ चुका मेरा, पर कोमल द्रवित मन। चाह रखता हैं फिर वही दिवास्वप्न दे
अपराध को छिपाने का नया महकमा बन गया, जिसे दी जिम्मेदारी हमने सुरक्षा की, वही बहसी बन गया।। कभी घर लूटा कभी लूट ली अस्मत, कही दंगे हुए, कही बलात्कारी, वोट लेकर नेता भी करते है अब ग़द्दारी। अपराध को छिपाने का नया महकमा बन गया।