मैं किताब हूँ
मैं किताब हूँ
मैं किताब हूँ।
जाने कितने ऐसे चेहरे,
रिश्ते मेरे जिनसे गहरे।
उन चेहरों के संघर्षों का,
मैं जवाब हूँ।
मैं किताब हूँ।
कुछ ने मुझ में दर्द लिखा है,
कुछ ने मर्म लिखा जीवन का।
कुछ ने लिखी प्रेम की बातें,
कुछ ने राज लिखा जीवन का।
खुद में भाव समेटे सबका,
मैं हिसाब हूँ।
मैं किताब हूँ।
गीता ज्ञान समाहित मुझ में,
मुझ में है कुरान की आयत।
सभी धर्म के दर्शन मुझ में,
मुझ में लिखी मनुष्य की हालत।
लिखने वाले विद्वत जन का,
मैं नक़ाब हूँ।
मैं किताब हूँ।
तुलसी का मानस मैं ही हूँ,
मैं माधव की गीता हूँ।
है कबीर की वाणी मुझ में,
मैं सबकी रंजीता हूँ।
कवि के चिंतन की धारा का
मैं प्रवाह हूँ।
मैं किताब हूँ।
मेरे अंदर कितनी भाषा,
ना जाने कितनी परिभाषा।
कष्ट मुझे बस तभी हुआ है,
जब-जब उसने नोचा फाड़ा।
जिसकी सभी सफलताओं का,
मैं गवाह हूँ।
मैं किताब हूँ।।