वो पुल
वो पुल
याद है आज भी गरमियों के दिनों में नानी का घर, कितने ही मज़े करते थे, शहर से दूर वह उनका घर और उसका विस्तृत बाग,एक छोटा सा तालाब और एक पुराना झूला, ये सब आज भी मेरी कुछ स्वर्णिम स्मृतियां हैं और याद है आज भी मुझे वो पुल, वो पुराना सा पुल। उनके घर से कुछ दूर, वहाँ बहुत कम ही लोग जाते थे, सब कहते थे उस पुल पर शाम को कभी नहीं जाना ,वहाँ भूत प्रेत का वास है।
हम जब भी नानी के घर जाते ,उस पुल को दूर से ताकते रहते। कितना रहस्मई नज़ारा दिखता था, पुराना सा पुल, कहीं टूटा, चारो तरफ बड़ी बड़ी घास उगी हुई , उसकी रेलिंग पर लताएँ दूर तक फैली हुईं। कहते थे वहाँ कभी एक बड़ा तालाब हुआ करता था ,एक बार रात के समय एक बच्चा उसी में गिरकर मर गया ,फिर कुछ दिन बाद उसकी माँ भी इसी ग़म में चल बसी, आज भी रात होते ही, वह माँ बच्चे को उसी पुल पर ढूंढती है ।
एक बार हमारे साथ असम में रहने वाले हमारे एक ममेरे भाई, पुलक दा छुट्टी बिताने आए, उनकी दिलेरी के कई किस्से हमने सुने थे ,कभी वह साँप पकड़ने में मदद करवाने के लिए प्रसिद्ध हुए तो कभी चोर को दबोचकर। आते ही उन्होंने भूतिया पुल की कहानी को मज़ाक में उड़ा दिया और एक शाम पुल पर जाकर आधा घंटा रुकने की बात करने लगे।
हम सब भी इस बात को सुन रोमांचित हो उठे ,रोंगटे खड़े करनेवाले इस प्रस्ताव में हमें बहुत मज़ा आने लगा, बचपन की सहजता ने उस प्रस्ताव के खतरों को सोचने की दरकार से हमें कोसों दूर रखा । बस एक शाम बच्चों की टोली निकल पड़ी ,उस दिन घर में अगले दिन होने वाले पूजा की व्यस्तता में किसी बुज़ुर्ग ने हमें टोका भी नहीं, ये भी पुलक दा की सुयोजना का ही नतीजा था, बच्चों की टोली का नेतृत्व पुलक दा सफेद धोती और कुर्ता पहन हाथ में टॉर्च ले ,कर रहे थे। कई बच्चों ने कहा तो था वह पुलक दा के संग चलेंगे पर पुल पर पहुँच सब की हिम्मत साथ छोड़ गई। कुछ बच्चे वापस जाने की ज़िद भी करने लगे,ये सब देख पुलक दा गुस्से से तमतमाते हुए पुल पर चढ़ गए, और बस बीचोबीच अंधेरे में खड़े हो गए।
विश्वास मानिए एक मिनट में पूरा वातावरण ही जैसे बदल गया,सब चुप हो गए, वो मौन छाया जैसे वो किसी को ग्रास कर ही सहज होगा। हम दूर से दादा को देख रहे थे ,अचानक एक ज़ोर की आवाज़ "बाबू" और फिर पुलक दा चिल्लाए ,"ओ ! माँ "। बस किसी को कोई होश ना रहा ,सब घर की और दौड़ने लगे,बच्चों को ना देख घर के बड़ो ने भी ढूंढना शुरू किया था ।वो भी आधे रास्ते मिल गए,तब हमें पुलक दा की याद आयी। देखा पुलक दा पुल से कुछ दूर ही बेहोश पड़े थे, ज़ोर का बुखार आया था, धोती भी गायब थी।
रात को सभी बड़ो से बहुत डांट पड़ी ,पुलक दा भी दो एक रोज़ में स्वस्थ हो गए पर उनकी दिलेरी को जैसे एक अनदेखा लगाम लग गया,सुबह घर में कार्यरत लोग उनकी धोती ढूंढने गए ,पर वो धोती कहीं नहीँ मिली।
छुट्टियां खत्म हो गईं , हम सब घर वापस हो गए, फिर पुलक दा कभी छुट्टियों में नानी के घर नहीं आए। उस एक घटना ने सबको बड़ा बना दिया, पर आज भी, वो चीख,वो रात और वो पुल हम सब की यादों में सजीव है।