ममता भरी रोटियाँ
ममता भरी रोटियाँ
ओह सर्दियों का मौसम उफ्फ, मैं अपने दोस्तों के साथ खेलने जाता और फिर सूर्यास्त के समय वापस आता तो, मुझे ऐसा लगता जैसे हल्की सी ठंड लग रही हो और फिर मैं मजे से ही अपने आंगन में आता तो देखता की मेरी मां, आंगन के एक कोने में मिट्टी के चूल्हे पर रोटिया बनती हुई नजर आती।
मैं भी झट से मां के पास जाकर बैठ जाता और माँ से गर्म गर्म रोटियां खाने की जिद करता। फिर मां मुझे वही पर खाना उतार देती थी। माँ हाथ धोने का बोलती लेकिन ठंडी में हाथ धोने का बिल्कुल भी मन नहीं होता लेकिन मुझे ज्ञात था, माँ बिना हाथ धोने से पहले खाना खाने नहीं देगी इसलिए धीरे से उठ कर हाथ धोने चल दिया तभी मेरे पिताजी आ जाते और हम साथ गरम गरम रोटियो के साथ बैंगन की सब्जी खाने लगते ठंड में रोटियां जल्दी ठंडी हो जाती। फिर धीरे से में मां के तरफ देख कर आधी रोटी देता और बोलता मां इसे गर्म करो ना फिर माँ उसे गर्म कर के देती फिर गांवों में तो जल्दी सोने का रिवाज होता है और हम भी सो जाते।
मुझे याद है बचपन की वो सुनहरी यादें जिन्हें चाह कर भी नहीं भूल सकता। शाम के समय सूरज के डूबने का समय और कच्ची गलियां उधर से गाय भेंस बकरियों को चराने वाले लोग अपने घर वापस आते थे और फिर ओटलो पर बूढ़े बूढ़े लोग अपनी मंडली जमाते और बातें चटकाते। इधर बच्चों की टोलियां चोर पुलिस और लुका छिपी का खेल खेलते जब हम उन के पास जाते तो दादा हमे डांट कर बोलते इधर नहीं उधर जाकर खेलो, लेकिन बचपन तो बचपन होता है। थोड़ी देर बाद बच्चे फिर से बड़ो कि टोली में जाते हैं और शोर मचाते। सच है बचपन से अच्छे कोई पल नहीं होते।
