“
उलझी उलझी सी लगती है यह रातें मेरी
सुलझाने इक रोज़ तुम आ जाओ ना
सुलझे सुलझे से लगते हैं जज़्बात मेरे
थोड़ा थोड़ा सा उलझा जाओ ना
अधूरे अधूरे से कुछ सवाल मेरे
जबाब उनके तुम दे जाओ ना
बस फासला ही तो है कुछ दूरी का
इक कदम मैं इक तुम बढ़ाओ ना
इक बार तुम आओ ना ........
”