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मुरझाई...
मुरझाई साँझ के...
मुरझाई साँझ...
“
मुरझाई साँझ के दीवा की लौ धुँधली
किसी के अश्क बन रो रो जली
हथेली पर उभरती मिटती कोई लकीर है
हाँ ये बंधी हुई कोई जागीर है
--कंचन प्रभा
”
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